रविवार, 5 अप्रैल 2015

रिस्तों के पाँव कहाँ गए

न मालूम रिस्तों के पाँव कहाँ गए 
शजर वही, न जाने छांव कहाँ गए -
रिस्तों की बुनियाद पर बसती जींद
शहरी भीड़ में न जाने गाँव कहाँ गए- 
आँचल बेबे का कभी गुम न हुआ
न जाने आदर्शों के निशान कहाँ गए -
उम्र छोटी हुई या बड़ी सोचा नहीं
दिल में रहने वाले मेहमान कहाँ गए -
गिनता है जिन्हें, निरा सामानों में
कितने महफूज हैं,वो आशियानों में -
दर बदर हो गए जिन्हें जीवन कहते
रहते हैं निराशे खुले आसमानों में -

किसी दर्द में कभी हमदर्द नहीं होया
जो होया उसे गिनते हैं दीवानों में -
अपने प्यार को दिल में जिंदा रखते
वो मोहताज नहीं महलों या मकानों में -

उदय वीर सिंह

1 टिप्पणी:

डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक' ने कहा…

हार्दिक मंगलकामनाओं के आपको सूचित करते हुए हर्ष हो रहा है कि आपकी इस प्रविष्टि की चर्चा कल सोमवार (06-04-2015) को "फिर से नये चिराग़ जलाने की बात कर" { चर्चा - 1939 } पर भी होगी!
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सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'