सहरा की आतिशी का मैं कैसे गिला करूँ
न किया है कोई अहसान हमने शजर देकर-
न किया है कोई अहसान हमने शजर देकर-
तलाशे मंजिल सफर में रहा मुसाफिर मैं
तुम सर करो मंजिल खुश हूँ रास्ता देकर -
मांगी दुआयेँ रब से ,रहे रफ्तगी कामिल
लूटा गया बहुत मैं रब का वास्ता देकर -
लूटा गया बहुत मैं रब का वास्ता देकर -
उदय वीर सिंह
1 टिप्पणी:
हार्दिक मंगलकामनाओं के आपको सूचित करते हुए हर्ष हो रहा है कि आपकी इस प्रविष्टि की चर्चा कल शुक्रवार (10-04-2015) को "अरमान एक हँसी सौ अफ़साने" {चर्चा - 1943} पर भी होगी!
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सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
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