मंजिल करती है
यश-अपयश के काल-खंड कलम नहीं
शुचिता लिखती
है
श्री उपसर्गों
की दानशीलता वैभव नहीं
प्रज्ञा बनती
है
शोक विकल
अतिरंजित उर से व्यथा नहीं
कविता
बहती है -
दीवा के
घृत- कोशों में बाती नहीं
प्रतिभा जलती
है
उत्तान श्रिग
हिम खंडों से बर्फ नहीं
संस्कृति
पिघलती है -
उदय वीर सिंह
2 टिप्पणियां:
आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल शनिवार (09-05-2015) को "चहकी कोयल बाग में" {चर्चा अंक - 1970} पर भी होगी।
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सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
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हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक
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सुंदर दृष्टांत
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