क्या ठिकाना-
जाने कब हो जाएगा हैवान आदमी
क्या ठिकाना -
तपती देग में रिस्तों को भून रहा
लेन-देन के भाव तराजू तोल रहा -
कब देगा बदल ईमान आदमी
क्या ठिकाना -
एक हाथ से देकर,एक हाथ से ले
अर्थशास्त्र की भाषा को बोल रहा -
जाना हो जाएगा अनजान आदमी
क्या ठिकाना -
टूटे पाँव बैसाखी टूटी छोड़ चले अपने
विदीर्ण हुए हृदय के पाल रखे थे सपने
मालिक कब बन जाए मेहमान आदमी
क्या ठिकाना-
उदय वीर सिंह
1 टिप्पणी:
सुन्दर व सार्थक रचना प्रस्तुतिकरण के लिए आभार..
मेरे ब्लॉग की नई पोस्ट पर आपका इंतजार....
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