मंगलवार, 16 फ़रवरी 2016

जब भाषा दरबारी ,दैवीय....

जब भाषा दरबारी जनमानस से दूर 
दैवीय अवतारी हो जाती है
तब भाषा भिखारी हो जाती है -
जब भाषा अश्लीलता
मनोरोगियों की छांव रहती है
भाषा व्यभिचारी हो जाती है
जब भाषा प्रवाह के साथ होती है
खोकर अस्तित्व बेचारी हो जाती है
जब मदहोशो के पाँव इश्क के गाँव
रहती है बाजारी हो जाती है -
शब्द उसके होते संवाद उसके
भाषा उघारी हो जाती है
प्रेम मोद मद की पहचान बन जाए
भाषा बीमारी हो जाती है -
समझती है मर्म उकेरती है प्रछन्नता
देश काल दृष्टि की संयोजक बने
भाषा अर्चना की अधिकारी हो जाती है -
उदय वीर सिंह