अदृश्य स्पाती जंजीरें
जिसने बांध रखा है जिश्म, मन ही नहीं
आत्मा को भी ,
कभी कानून कभी नैतिकता
आचार कभी भूल की ,
कभी धर्म की
दुहाई देकर ......
देश काल दशा दिशा की महावर
पैरों मेँ लगा
विकृतियों पर ,
इतराने को मजबूर
अभिशप्त वैधव्य भी धर्म सम्मत अवसर
सरीखा
प्रतिदान मानकर जीने का
अनुष्ठान
एक कुटिल षडयंत्र .....
जलाओ अदृश्य अलिखित
संहिताएँ
ध्वस्त हो मंजूषा
कनक प्रकोष्ठों मेँ
सेवित विष का
भंडार ....
तोड़ो !
व्यवस्था के नाम
अत्याचार की
सुनियोजित कारा ...
उदय वीर सिंह
3 टिप्पणियां:
आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल सोमवार (02-05-2016) को "हक़ मांग मजूरा" (चर्चा अंक-2330) पर भी होगी।
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सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
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चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
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श्रमिक दिवस की
शुभकामनाओं के साथ
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
बहुत अच्छा आह्वान, अंधविश्वासों के जंजीर को टूटना ही चाहिए |
ब्लॉग बुलेटिन की आज की बुलेटिन, " मजदूर दिवस, बाल श्रम, आप और हम " , मे आपकी पोस्ट को भी शामिल किया गया है ... सादर आभार !
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