मनुष्यता की कोख से
संवेदना संज्ञान ले -
नीर्जला की भूमि से
नद- सरित प्रयाण ले -
तृण मूल भी हुंकार भर
लौह का स्वरुप ले
विपन्नता व दैन्यता
मष्तिष्क से निर्वाण ले -
कहीं दबी गहराईयों में
सृजन की सद्द चेतना
भेद कर प्रस्तर अटल
नव वल्लरी आकार ले -
- उदय वीर सिंह
1 टिप्पणी:
आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल शुक्रवार (24-06-2016) को "विहँसती है नवधरा" (चर्चा अंक-2383) पर भी होगी।
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सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
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चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
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हार्दिक शुभकामनाओं के साथ
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
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