रविवार, 5 जून 2016

रस्म तो रस्म ही है

गुमनाम सिंह ! गुमनाम सिंह !  हरी सिंह आवाज दे रहे थे । 
   जाने किधर रहता है पता नहीं कहाँ है ,गूंगा बहरा हो जाता है ,जब बुलाओ तो न सुनता है न आवाज ही देता है । ठीक ही इसका नाम गुमनाम रख दिया । खाँसते हुये हरी सिंह ने कुछ ऊंची आवाज मेँ कहा । अच्छा ही हुआ जो सब के सब छोड़ कर चले गए । बेटे -बेटियाँ, कहने को सगे संबंधी मित्र सब .... । कौन किसके लिए रुका है , एक कहने को अर्धांगिनी वह भी हम से पहले ही हाथ छुड़ा चली अपनी राह ,तू भी चला जा । मैं तुम्हें भी नहीं रोकूँगा , ... आखिर तू भी मेरा कौन है तुम पर भी कौन मेरा सा अधिकार है । जब अपने ही नहीं हैं मेरे कठिन समय मेँ, तो तुम तो ठहरे एक पराए नौकर जब तक पगार पाओगे रहोगे ,नहीं अपनी राह देख लोगे । हरी सिंह कुंठित हो अकेले बोले जा रहे थे । बृद्धा अवस्था वह भी बीमार कृशकाय शरीर , आदमी असहज व भावुक हो ही जाता है । 
जी ताऊ जी ! आ गया , गुमनाम सिंह  पास आकर बोला। 
कहा चला गया था मैं यहा परेशान हूँ और तू घूम रहा है इधर उधर । 
जी ताऊ जी ! मैं चला गया था पाव रोटी लेने , हाथों मेँ जख्म हो गया है , रोटी नहीं बना पाया था । आपको दवा खानी है न इस लिए । पाव रोटी के लिए .... गुमनाम सिंह अभी अपनी बात पूरी करता की 
चुप बदमाश ! केवल बहाने बनाता है । हरि सिंह डांटते हुये बोले मैं तेरी शिकायत बेटों से  से करुगा । तु बहुत सिर चढ़ गया है । मेरी ही औलाद समझने लगा है अपने आपको ,नौकर !मेरी कोई फिक्र नहीं है इसे भी । 
माफ करो ताऊ ! ऐसा नहीं है ।गुमनाम विनम्रता से कहा । 
अब जा भी यहा से ..... हाथ उठा ,हरी सिंह बोले  
  जी ताऊ ! अभी चाय और पाव रोटी लाया । सिर नीचा किए गुमनाम चला गया । बिना कोई प्रतिवाद किए । 
   हरी सिंह की पत्नी का दो माह पूर्व स्वर्गवास हो गया विदेशों मेँ बसे बच्चे अर्थी को कंधा तो नहीं दे सके पर श्राद्ध पर इकट्ठे हुये । पिता हरी सिंह को तीनों बच्चे एक बेटी गाँव से शहर के मकान मेँ ले आए । साथ आया गुमनाम सिंह सेवा व देखभाल के लिए । गुमनाम का वास्तविक नाम, ग्राम क्या है किसी को नहीं पता वह हरी सिंह को एक सफर मेँ मिला साथ लाये उसकी न किसी ने खो खबर ली न किसी ने शिकायत । वह हरी सिंह के पास रह गया नाम गुमनाम पड़ गया । हरी सिंह ने उसे एक बीघा जमीन अलिखित रूप से अपने परिवार के समक्ष देने की घोषणा की थी , गुमान घर का सदस्य स्वरूप हो गया । 
      हरी सिंह प्रतापपुर शुगर मिल मेँ मुलाजिम  थे पास ही गाँव मेँ अच्छी खेती बाडी शहर मेँ लंबा चौड़ा मकान ,समृद्ध परिवार था  कालांतर मेँ बच्चे बाहर विदेश स्थापित हो गए । पर स्टेटस का गुरूर सगे संबंधियों से व समाज से दूरी भी बढ़ती गई । संबंध नाममात्र के वो भी व्यवसायिक से रह गए ।कोई अतिआवश्यक कार्य न हो तो इस परिवार से कोई सरोकार न रखता । नौकर कम परिवार का सदस्य गुमनाम ही था जो पास था । सेवादार परिचारक, रखवाला, रसोइया सब कुछ ।
  गुमनाम सदेव खुश था प्रौढ़ होने पर एक नेपाली मूल की लड़की से शादी भी इस परिवार ने करा दी, पर कुछ समय बाद दुल्हन ने इस परिवार से नाता तोड़ कहीं और चल अपना घर बसाने को कहा ,क्यों की वह गुमनाम की बंधक सी जिंदगी व सेवादारी से वह सहमत नहीं थी । वह मुक्त जीवन चाहती थी । 
   नहीं मैं इस परिवार को छोड़ कर नहीं जा सकता । यह मेरा घर है ये मेरे अपने परिजन हैं । गुमनाम ने स्पष्ट कहा था । और दुल्हन गुमनाम को छोड़ चली गई ,फिर कभी नहीं आई । 
    हरी सिंह की पत्नी के इंतकाल के बाद हरी सिंह के बच्चे हरी सिंह को शहर वाले मकान पर  लाकर गुमनाम की रखवाली मेँ छोड़ दिया । गुमनाम  को अब तीन हजार की पगार भी देने की घोषणा हुई थी ,जिससे गुमनाम की वफादारी या लालच से सेवा बनी रहे । यह अलग है कि तंख्वाह के नाम पर अभी एक पैसे किसी ने नहीं दिये । वह कभी अपनी हसरतों को कहा भी नहीं ,जो मिला मुकद्दर माना । उसे हरी सिंह व उनकी पत्नी का पूर्व वात्सल्य स्नेह व दिया आधार अब याद आता ,बेरुखी खलती थी ,कभी सोचता..... वह तो नौकर का नौकर ही रहा .... फिर भी क्या हुआ । 
    सितंबर का महिना उमस व मौसम परिवर्तन की पीड़ा ,खांसी बुखार का आना  सामान्य सा था ,इधर कई माह से हरी सिंह कि तबीयत काफी खराब रहने लगी थी ,कुछ न कुछ लगा ही रहता  वह चिड़चिड़े से हो गए थे ,अक्सर गुमनाम को भला बुरा कह देते ,बच्चों को कोसते। 
      गुमनाम फिर भी सेवा मेँ अनवरत था कोई शिकायत नहीं करता कभी नाराज नहीं होता वह हरी सिंह की मनोस्थिति को समझता था । किसी एक रिश्तेदार ने गाँव से एक काम वाली को यहाँ लाकर रख दिया जो गुमनाम को  घरेलू कार्य मे मदद करती थी  । वह भी एक दिन कम छोड़ कर चली गई । अकेला गुमनाम रात दिन अनवरत सेवा मेँ झिड़कियों दांट-फटकार के बाद भी बिना शिकायत लगा रहता । 
    पिछले हफ्ते हरी सिंह भी स्वर्गलोक सिधार गए।  गुमनाम  की अथक सेवा भी काम नहीं आई । पुत्र पुत्रियाँ  रिश्तेदार सब तेरहवीं मेँ  इकट्ठे हुये ।  रश्म पगड़ी के बाद ही दूसरे दिन संपत्ति के बटवारे नामांतरण, वसीयत, वरासत की चर्चा  ही नहीं कार्यवाही  भी आरंभ हो गई । किसी के पास समय न था । बाँट बटवारा जितना शीघ्र हो जाए अच्छा था । सबको अपनी दुनियाँ की पड़ी थी । आज भी गुमनाम सेवा मेँ रत था ।  रश्म तो रश्म ही है पूरी होनी ही थी ,यहाँ किसी को उसकी चिंता न थी ,कोई उसका फिक्रमंद न था ।हरी सिंह की एक बीघे की रस्मी घोषणा जो करीब बीस पूर्व की गई अब बिसरी जा चुकी थी । 
      खाली हाथ अब वह अपने अनजान अंतहीन पथ पर था,  उसकी अब किसी के प्रति कोई  प्रतिवद्धता नहीं थी ,मुड़कर भी वह कैसे देखता ,पीछे से कोई आवाज भी देने वाला न था । 

उदय वीर सिंह 
    




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