सोणी गुरु ,गुरु- पुत्रों की राह
ऐसी मरनी जो मरे ,बहुरि न मरना होए -
बाल अवस्था जिसमें सोचने समझने की ,निर्णय लेने की अल्प सीमा ,राजनीतिक , सामाजिक, आर्थिक सोपानों के आरंभिक निर्माण का चरण ,समान्यतः अविकसित व थोड़ा ही होता है । दूसरी तरफ परिस्थितियाँ अत्यंत प्रतिकूल परिवार दूर- दूर बिखरा हुआ, माँ ,पिता ,भाई का छूटा संग जो फिर कभी मिलन का प्रारब्ध न बन सका । उजाला भी मिला तो पूस की असीमित कठोर शर्दी में होती वर्षा की तड़ित से जो अट्टहास कर क्षणिक प्रकाश दे पहचान कम, संत्रास अधिक दे जाती । समाज अतिशय भयभीत मत -बिभाजित बलहीन चाहकर भी सहायता देने में असमर्थ था मात्र उसके पास था तो वेदन भरा मौन । अप्रत्यासित भय कुंठा और निराशा ।
आतंक अत्याचार सहने को अभिशप्त ...... अपनों के विस्वासघातों ने अत्याचारियों को बल दिया ।
गुरु गोबिन्द सिंह के दो पुत्र साहबजादे जोरावर सिंह उम्र मात्र 9 वर्ष और सहबजादे फतेह सिंह उम्र मात्र 6 वर्ष साथ में दादी माता गुजर कौर जी ,सूबा लाहौर के नवाब वजीर खान की कैद में जो गंगू पंडित [ गुरु घर का रसोइया था ] पद प्रतिष्ठा की लालच में गिरफ्तार कराया ।
दोनों गुरुपुत्रों का अपराध था -
गुरु गोबिन्द सिंह का पुत्र होना तथा
धर्म से सिक्ख । ये अक्षम्य अपराध की श्रेणी थी ।
हथकड़ी व बेड़ियों में कस सेना की अभिरक्षा मे दोनों मासूम अदालत में सुनवाई हेतु चार किलोमीटर दूर ठंढे बुर्ज से जहां वो कैद कर दादी माँ के साथ रक्खे गए थे । वहाँ से वो कई दिनों से पैदल ही लगभग घसीटते हुए से लाये जा रहे थे ।कोई रहम नहीं , बेरहमी की पराकाष्ठा ,अदालत में आज फैसले का दिन -
मुंसिफ़ - तो तुम लोग सल्तनत के नियम और क़ानूनों से इत्तेफाक नहीं रखते ?
जोरावर सिंह और फतेह सिंह समवेत स्वरों में बोल उठे - बिलकुल नहीं ?
मुंसिफ़ - इस्लाम स्वीकार नहीं करना , क्या तुम दोनों का आखिरी फैसला है ?
शावक द्वय - यकीनन हमारा आखिरी फैसला है ।
मुंसिफ़ -एक बार और सोचने का मौका देता हूँ,इस्लाम कबूल कर लो जिंदगी तुम्हारी होगी ।बख्स देंगे जिंदगी ।
तुरंत बेखौफ बुलंद आवाज में फतेह सिंह ने प्रश्न किया -
तुम्हारा इस्लाम कबूल करने के बाद क्या फिर हम कभी मरेंगे नहीं ?
मुंसिफ़ खामोश ! कोई उत्तर न दे सका अदालत में खामोशी थी । उपस्थित तमासबीन और सरकारी मुलाज़िम हैरान थे ... देर तक खामोशी छाई रही ।
फिर साहबजादे फतेह सिंह की तेजश्वी स्वाभिमानी आवाज मुखर हुई ।
जब तुम्हारा इस्लाम मौत से ऊपर नहीं है , तुम्हारे इस्लाम में भी रहकर मरना ही है तो, मुझे अपने धर्म में ही रहकर मरना स्वीकार है, इस्लाम में नहीं ।
ऐसी मरनी जो मरे, फिर बहुरि न मरना होए ।
वाहे गुरु जी खालसा ! वाहे गुरु जी की फतेह ! के अप्रतिम जैकारे छोड़ कर वे अडिग निडर व आत्मबल से भरपूर थे ,समूची मानवता ही नहीं धर्म, संस्कार, संकल्प, वचन को सास्वत जाज्वल्यमान कर दिया । भरी अदालत विस्मित थी ।
तमाम अंतर्विरोधों से भरा फैसला - दोनों सिंह शावकों को जिंदा ही दीवार में चुनवाने का हुक्म आया । हुक्म की तामीर हुई । मासूम सिंह अपने वचन से डिगे नहीं दीवार में जिंदा चुन दिए गए ।
ठंडी बुर्ज पर गुरु माता गुजर कौर ने अपने प्राण त्याग दिये ।
इसी पुस माह में एक सप्ताह के भीतर साहबजादे अजीत सिंह 17 वर्ष ,साहबजादे जुझार सिंह उम्र 14 वर्ष चमकौर साहिब की जंग में गुरु -पिता की निजामत मे रक्षार्थ देश, धर्म संस्कृति वीर गति को प्राप्त हो गए । गर्व है हम उनके वारिस हैं । कोटि-2 नमन ,अश्रु पूरित विनम्र श्रद्धांजलि ।
उदय वीर सिंह
1 टिप्पणी:
आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल सोमवार (26-12-2016) को "निराशा को हावी न होने दें" (चर्चा अंक-2568) पर भी होगी।
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सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
क्रिसमस की हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
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