सोमवार, 30 मई 2016

दौर-ए -आजादी हिंदुस्तान एक था

हर गली हर सड़क जल्लाद देखता हूँ
बेखौफ कातिलों को आजाद देखता हूँ-
रुखसत हो रहे हैं जहीनों के काफिले
हाथों में अनपढ़ों के किताब देखता हूँ -
शरीफ गुमशुदा हैं खा दर दर की ठोकरें  
सितमगर दर फरेबी आबाद देखता हूँ -
दौर-ए -आजादी हिंदुस्तान  एक था 
जश्ने -आजादी सारे वाद   देखता हूँ -

उदय वीर सिंह 
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शनिवार, 28 मई 2016

वीर गाओ सुमंगल गीत

वीर गाओ सुमंगल गीत
शोकगीतों को छोड़कर
मुक्त मानस को होना है
बिषम कारा को तोड़कर     
नवीनता का उन्नयन सद्द्ग्राह्य लगता है
पर अभिशप्त होना है
लोकगीतों को छोड़कर --
जीवन की पौडियां हैं सुख दुख के नाम से
निराशा ही व्याधियाँ हैं

प्रेमगीतों को छोड़कर -

गुरुवार, 26 मई 2016

बनाई राह चलने की

बनाई राह  चलने की 
वो भी कुछ लोग थे 
मिटाई राह चलने की 
वो भी कुछ लोग थे -
जलाए दीप जलकर भी  
वो भी कुछ लोग थे 
खाई घास की रोटी 
वो भी कुछ लोग थे -
गाए गीत फंदों पर 
वो भी कुछ लोग थे 
जाए जींद जिये वतन 
वो  भी कुछ लोग थे -

उदय वीर सिंह 

मंगलवार, 24 मई 2016

छांव ठहरेगी कहाँ -

पाँव ठहरें तो ठहर जाएँ 
छांव ठहरेगी कहाँ -
किश्ती तो किनारों का सबब है 
दरिया ठहरेगी कहाँ -
जख्मों का चलन अपना है 
घटा बरसेगी कहाँ -
अच्छा है आँखों की जुबां नहीं 
दास्तां वो कहेगी कहाँ -

उदय वीर सिंह 



शनिवार, 21 मई 2016

बाद गिरने के संभलना आए

टूट कर बिखरा तो वजूद क्या
टूट कर संवरना आए -
गिरे पेड़ से भी कल्ले निकलते हैं
बाद गिरने के संभलना आए-
ठन्ढी छांव मिलती है मुकद्दर से
हमें भी छांव बनना आए -
खाली नहीं मिलती मुश्किलों से राह
मुश्किलों से निकलना आए -
जरूरत हो जमाने को अँधेरों में
हमें दीप बन जलना आए -
बहुत चले तुम अपने लिए वीर
कभी जरूरतमंदों के लिए चलना आए -

उदय वीर सिंह

गुरुवार, 19 मई 2016

आदमी की बात आदमी जाने

कैसे, कब , कितना टूटा, क्यों टूटा
आदमी इससे सरोकार क्यों रखिए 
यह तो आदमी की बात है आदमी जाने
फूलों की बस्तियों में वीर खार क्यों रखिए -
खरीद लेगे हमसफर हमकदम हमनवाज
मिलते हैं बाजार मे खानकाही यार क्यों रखिए -
गैरतो ईमान का फलसफा पुराना हो चला
लुटेरों की बस्तियों में पहरेदार क्यों रखिए -
उदय वीर सिंह

बुधवार, 18 मई 2016

बदनाम बंद पड़ी हवेली का ...

बदनाम बंद पड़ी हवेली का दरवाजा खोला जाए
पत्थरो में इमारत है या इमारत में पत्थर टटोला जाए -
वसीयत किसके नाम है खूनी दस्तावेजों की
गुनाहों का वजन कितना है अब तो तोला जाए -
शमशीर बताएँगी उनपर खून के छींटे किसके हैं 
लब खामोश क्यों हैं, कुछ अल्फ़ाज़ तो बोला जाए -
हुश्न और इल्म की कब्रगाह ज़मींदोज़ होनी चाहिए
अगर हुआ है पाप तो वीर ! पाप को कबूला जाए -
उदय वीर सिंह

वो मालिक हम मशीन बनकर रह गए

सच को झूठ, झूठ को सच होता देखते रह गए
हम भीड़ के सिर्फ तमाशबीन बन कर रह गए -
हाथ, किसी ने गर्दन, किसी ने उदर उड़ा दिया
चमत्कारों की आश में जायरीन बनकर रह गए  -
राजनीति के मदारियों ने जनता को बंदर समझ लिया
वो मालिक बन गए हम मशीन बन कर रह गए -
उदय वीर सिंह 

रविवार, 15 मई 2016

अम्मा लकोया कैसे ...

आज स्मृतिशेष माँ याद आई ,बहुत याद आई .. न जाने क्यों ! माफी चाहूँगा मित्रों अपनी भावुकता के लिए ,रोक नहीं पाया ।

अम्मा लकोया कैसे

अपने दिल की बात को -
लगा देता आग अपने  
दिली  जज़्बात को -
लीरा लीरा आँचल भीगा 
सहते आघात को
सुलाकर सोयी अम्मा 
वेदन लिए रात को -
धूल गयी मांग फिर भी 
देखती थी बाट को -
आने वाला चला  गया 
छोड़ करके साथ को
हाथों की लकीरें पढ़ती 
करती अरदास को -
सरहद थी हमारी जींद 
छोड़ जमाने की बात को -

उदय वीर सिंह 


जमीर बंजर हो गया

****[ स्वीटजरलैंड की एक फुरसती शाम ......]
जमीन बंजर हो गई 
जमीर बंजर हो गया -
पूछ कलमकार से क्यों
विचार खंजर हो गया -
छांव स्वप्न हो गई
ऊंचा शजर जो हो गया-
आया गुलाम नींद में
आजाद मंजर हो गया -
रोटी बनाम आबरू ईमान
इंतजाम बंजर हो गया -
सत्य निष्ठा गुम गए
इंसान बंजर हो गया -
उदय वीर सिंह

शनिवार, 14 मई 2016

हर नुमाइंदा हमनाम दिखता है -

कफन के नाम पर  भी नफा नुकसान दिखता है 
रंग खून का एक है पर छोटा बड़ा इंसान दिखता है 
रोटी कपड़ा मकान का प्रश्न सदियों से उबल रहा 
फुटपाथ पर इंसान, महलों में भगवान दिखता है -
तय न हो पाईं प्राथमिकताएँ  दौरे समाजवाद भी 
कितना पूर्वाग्रह से ग्रस्त सियासतदान दिखता है -
जरूरत तो सबको है शिक्षा सुरक्षा विकाश गंगा की 
परिभाषाओं की अलग अलग देगची में हिंदुस्तान दिखता है -
कुदरत ने तो इंसाफ किया पंचभूतों को बख़्श कर 
कमाल ये है की उनपर भी बंदों  का नाम दिखता है -
दल दल में भरी  भारी भीड़ है मौक़ापरस्तों की 
किस किस का नाम लूँ हर नुमाइंदा हमनाम दिखता है -

उदय वीर सिंह 




शुक्रवार, 13 मई 2016

नेताजी का घोषणा पत्र

हमें ताज दे दो तुम्हें हम काज देंगे
हमें पंख दे दो तुम्हें परवाज़ देंगे -
गुरु दक्षिणा में अंगूठा नहीं वोट दो ,
 हम तुम्हें जीवन से ही निजात देंगे -
आत्महत्या को इच्छा मृत्यु मानेंगे
गरीबी के बदले मौत की सौगात देंगे -
आंसुओं पर भी कर लगाए जायेंगे
संविदा पर बोलने को आवाज देंगे -
कानून में बदलाव अपरिहार्य हैं वीर
302 में जानवर का भी साथ लेंगे -
शहीद कहे जाएंगे फ़सादों में मरने वाले
मेरे लिए लड़ने वालों को इमदाद देंगे -
वतन पर मरने वाले ही देशप्रेमी नहीं
फिरकापरस्ती को भी खिताब देंगे -
बदल देंगे वक्त अगर बदला नहीं
 छिन कोयल से गधे को सुर साज देंगे --
हमें आता है समस्याओं से लड़ना
गरीबी को जमीन गरीबों को आकाश देगे -

उदय वीर सिंह 


मंगलवार, 10 मई 2016

दया मांगो

हृदय मांगो तो दया मांगो
नैन मांगो तो हया मांगो -
दर्दों मुश्किल में आओ तो
अपनों की दुआ मांगो -
गुनाह होता है अगर तुमसे
तो गुनाहों की सजा मांगो -
गर मांगो तो जिंदगी मांगो

दुश्मन को भी कजा मांगो -

उदय वीर सिंह 

रविवार, 8 मई 2016

माँ कर्मा [ कहानी ] पूरी दुनियाँ के माओं को समर्पित

   माँ कर्मा [कहानी ] पूरी दुनियाँ की माओं को समर्पित 
****
     मदारी जैसे कहता चंचल भालू वैसे स्वांग करता ,तनिक भूल हुई की, नुकीली छड़ी शरीर में बेध देता । चंचल बड़ा समझदार बच्चा था उम्र कोई दो साल । चंचल कोशिश करता की कोई उससे गलती न हो जिससे मदारी नाराज हो । उसे मालूम है की गलतियों की सजा क्या होती है ।कई दिन तक भूखे प्यासे भी रहना पड़ा है । नाक में मजबूत रस्सी की नकेल गले में कसी चमड़े की बेल्ट, कतर दिये गए नाखून, चमड़े की छोटी बेल्ट से बंधा हुआ मुंह उतना ही खुलता कि मुंह की राल निगल सके । खाना भी उतना ही कि जी सके, और मदारी के लिए पैसे कमा सके । उसे अपना जंगल और माँ बहुत याद आते । दिन भर मदारी के साथ शहर कस्बा गाँव अपना करतब दिखाता लोग खुश होते ,मदारी को पैसे मिलते । यही उसकी दिनचर्या हो गयी थी ।
     चंचल को हरित वन से घात लगा कर वन कर्मियों की मिली भगत से मदारी ने पकड़ लाया था । बस्ती में उसे प्रशिक्षित कर अपना रोजगार चला रहा था । चंचल अपनी माँ कर्मा के पास जाना चाहता था ,परंतु वह असहाय था रस्सियों में रात दिन जकड़ा हुआ । खाने के समय कुछ समय के लिए मदारी उसे खोलता । फिर लगाम कस उसे पेड़ से बांध देता । चंचल अपनी बगावत का परिणाम भुगत चुका था ।कितनी निर्दयता से मदारी ने मारा था , बाल समेत चमड़ी भी उधड़ गयी थी ,घावों में कीड़े लग गए थे ,लाचार इतना की घावों को वह चाट भी न सकता था । वह अपनी नियति पर अपने को छोड़ दिया था । फुरसत के क्षणों में अपना अतीत याद करता और अतीत में माँ कर्मा के सिवा उसके करीब और कोई न था । परिजन भाई बहन कुछ -कुछ याद आते हैं, पर माँ का प्यार लगाव बह नहीं भूल पाता है । यादें बहुत व्यग्र करती है । यहाँ उसकी उदासी पीड़ा पर मरहम लगाने वाला कोई न था । उसके आँसू पोंछने वाला कोई न था । जब मदारी की पत्नी अपने बच्चे को दुलारती दूध पिलाती तो चंचल को माँ कर्मा बहुत याद आती, आंखे छलक उठतीं । वह कैद में कितना बेबस और दुखी था ।
     पिछले महीने माँ कर्मा स्वयं को छिपते -छिपाते मदारी के आवास के पास अपने बेटे चंचल से मिलने रात को आ गई थी । बेटे की दारुण स्थिति को देख मानो पागल सी हो गयी थी ,बिना देर किए बंधनों से मुक्त कर दिया । साथ चने का इशारा किया और दोनों चल पड़े पर मदारी का कुत्ता आहट पर जग गया और भौंकने लगा था ,मदारी की नींद टूट गई । हड़बड़ा कर उठा देखा माँ कर्मा और चंचल भागे जा रहे हैं ।
मदारी और उसके परिजन शोर मचाते पकड़ने को पीछे पीछे दौड़ पड़े । चंचल के गले में लटक रही रस्सी, माँ के साथ भागने में बाधा बन रही थी ,जो हड़बड़ी में नहीं कट पाई थी । माँ मुड़-मुड़ कर देखती ,रुकती ,फिर आगे भागती पर हथियारों से लैस मदारी व परिजन लगातार पीछा कर रहे थे, वे पकड़ने या मार देने पर आमादा थे । अंततः चंचल पुनः मदारी की गिरफ्त में था । पकड़े जाने के बाद चंचल को असीम यातना सहनी पड़ी । जिसकी कल्पना भी वह करने से डरता है ।
आज सुबह के पाँच बज गए थे, सूरज निकल आया था ।
नाश्ता कर लो लगा दिया है रोटी ठंढी हो जाएगी । मदारी की पत्नी ने आवाज दी ।
अभी आया जी । मदारी रस्सियों एवं अन्य सामानों को सम्हालता हुआ बोला ।
आज मेला है पास के कस्बे में वहीं आज चंचल का खेल होगा मदारी रोटी खाते हुये बोला
तो पैसे भी आज चंगे ही मिलेंगे जी । मदारी की पत्नी ने चहकते हुये कहा ।
मिलने चाहिए ,कई बार खेल दिखाने को मिलेगा । मेले में भीड़ भी ज्यादा होगी । मदारी ने कहा
मदारी अपना नाश्ता कर अपने बच्चे को पुचकार पत्नी से मीठी बात करते हुये दिनचर्या में व्यस्त था ।
चंचल आज सुबह से व्यग्र था उसे कुछ अच्छा नहीं लग रहा था ।आज मदारी रोज की तरह दो सूखी रोटी नहीं बल्कि चार रोटियाँ व दो लड्डू और ,चार केले उसके सामने फेंक , मिट्टी के बर्तन में पड़ा बासी पानी को उसकी तरफ सरका दिया था ।
चंचल जल्दी से खा ले आज मेले चलना है ,आज बहुत करतब दिखने हैं ,शरारत नहीं होनी चाहिए । हाँ ! मदारी थोड़ी नरमी से निर्देश देते हुये बोला ।
अब खेल-तमाशे के वह साजो समान बांध ,जाने को तैयार हो रहा था ।
तभी शोर होने लगा कुत्ते भौंकने लगे मारो ,भागो ! भालू आया .... भालू आया , बस्ती के लोगों में अफरा तफरी थी अभी कुछ समझ पाते की ,चंचल की माँ कर्मा ने मदारी के घर हमला कर दिया था । वह बस्ती में अपने चंचल को मुक्त कराने आ गयी थी । उसे कोई खौफ नहीं था । उसे मालूम था की मौत पक्की है पर संकल्पित थी अपने बच्चे को मुक्त कराने के निमित्त ।
मदारी को घायाल कर दिया उसकी पत्नी को खदेड़ दिया , मदारी के छोटे बच्चे की तरफ देखा उसे कुछ नहीं कहा । बस्ती के लोग अब हथियार ले कर्मा को मदारी के घर के पास घेर लिए थे । बहादुर कर्मा वार झेलती हुई ,चंचल को बंधन मुक्त कर चुकी थी । इधर उस पर मदांध भीड़ लाठी बल्लम भालों से वार पर वार किए जा रही थी । चंचल खूंखार हो था अपनी माँ के हमलावरों पर दहाड़ने लगा बचाव में माँ के ऊपर आ गया, तभी एक जाल माँ बेटों पर गिरी और दोनों निढाल हो जाल में फंस पस्त हो गए थे ।बस्ती में भालू की दस्तक सुन वनकर्मी जाल लेकर पकड़ने आ चुके थे ।
जाल के भीतर चंचल अपनी माँ की ओर देख रहा था ,उसको लगे अनेकों घावों को चाट रहा था,जख्मों से खून लगातार बह रहा था । साँसे बहुत तेज थीं..आंखे खोल कभी बंद कर चंचल की ओर देख लेती ..अचानक उसके मुंह से हुफ !! हुफ़्फ़ !! की आवाज निकली । चंचल अपनी माँ कर्मा के मुंह को देखा । माँ अब उससे छोड़ दूर जा चुकी थी, बहुत दूर ।
चंचल अब मुक्त हो जाएगा । जंगल में इलाज के बाद छोड़ दिया जाएगा । किसी ने कहा आज मातृ दिवस है ।एक माँ ने अपने बच्चे को मरकर भी ,बंधन -मुक्त करा दिया ।
उदय वीर सिंह



जरूरत से ज्यादा कब

दुनियाँ भर की माओं की चरण वंदना -
*****
जरूरत से ज्यादा कब
उदय तुमसे मांगा कब
मोहब्बत की जिंदगी में
नफ़तर को मांगा कब -
रखिया भरोषा रब से
दुनियाँ से मांगा कब
दो बोल प्यार के अरदास मेरी है
गुलशन मांगा तो
कांटों को मांगा कब -
खुशी एक पल की जहालत से चंगी है
आँखों में आँसू हमने
दामन में मांगा कब -
उदय वीर सिंह   


सोमवार, 2 मई 2016

छल...

   अम्मा मत रो  ! अब मैं ठीक हूँ देख अब मुझे दर्द नहीं है । देखो मैं कहाँ रो रहा हूँ , हाँ अम्मा  प्रीतम अपनी अम्मा का हाथ अपने हाथ मे ले अपने सिने पर घूमाता है ।
    माँ शांति देवी अपने बेटे की वेदना को समझ रही है ,जितना सब्र कर रही है उतना ही बेटे की सब्र की सीमा महसूस कर व्यग्र हो उठती है । डाक्टर के पास लंबी कतार है , नंबर भी आया है एक सप्ताह के बाद।  लगता है आज भी रात के एग्यारह - बारह के बाद ही नंबर आ पाएगा । प्रीतम की बेचैनी बढ़ रही है पर अम्मा को बता कर और परेशानी बढ़ाना नहीं चाहता । अम्मा पहले से ही दुखी है ।
   बाबू जी मेरे प्रीतम को पहले दिखा दीजिये सवेरे से बैठे हैं लाइन में शाम हो गयी ,मेरा बेटा प्रीतम अधमरा सा हो गया है । डाक्टर के अटेंडेंट से आँचल हाथ में ले गिड़गिड़ाती हुई शांति देवी ने याचना की ।
  ए माताजी ! जब नंबर आएगा तभी अंदर भेजेंगे । अगर जल्दी है तो कहीं और जाकर दिखाओ ।
बाबूजी मेरा बेटा बहुत तकलीफ में है , अब सहा नहीं जा रहा है । एक बार डाक्टर साहब से कह देते । आसू पोंछते शांति देवी ने मासूमियत से कहा ।
ए औरत क्या चिल्ला  रही है हम लोगन भी तो नंबर लगा के ही आए हैं, सवेरे से इंतजार में हैं , कई आवाजें पीछे भीड़ से आई ।
शांति देवी सहम गई आकर बेटे प्रीतम के पास सिसकियाँ भरते उसे टटोल संभालने लगी ।
   बेटा ! बेटा ! प्रीतम ! थोड़ा धीरज रखो,हिम्मत नहीं हारना, मैं तेरे साथ हूँ , हाँ  मरते दम तक साथ ।  हम कोई बड़े आदमी अमीर साहब सूबा थोड़े हैं की कोई मेरी मदद करेगा। बेटा सब्र करना होगा डॉ साहब आप को जरूर देखेंगे ।  अपने आप से बुदबुदा कहा रही थी । प्रीतम की दशा बिगड़ रही थी ।  खराब होती हालत देख अम्मा विचलित हो रही थी  ।
    कोई फर्क नहीं पड़ा न अस्पताल के कर्मचारी न डाक्टर पर मानों सब गूंगे बहरे हो गए हों ।  पीछे पास में एक महिला अपने बेटी को दिखाने आई थी  से न रहा गया बोल उठी-
   ये  कहाँ का इंसाफ है जी  ! हम इंतजार में है हमसे बाद में आए लोग अपने मरीजों को दिखा कर चले गए ये । पैसे वाले सिफ़ारिश वाले दबंग लोगों के लिए लाइन नहीं है । उनके ऊपर कोई कानून नहीं बना क्या ? इस बच्चा की हालत सिरियस है, और नंबर का खेल हो रहा है । पहले इस मरीज को दिखाओ । कुछ तो रहम करो बेरहमों ।
कुछ और लोगों ने समर्थन किया । डाक्टर  व उसके कर्मियों  की तंद्रा टूटी।  डाक्टर बाहर आया । कर्मी सन्नद्ध हुये । प्रीतम  को अंदर ले जाने की तैयारी करने लगे की प्रीतम अम्मा की बाहों में एक तरफ लुढ़क गया । अपनी बची खुची हिम्मत वह छोड़ गया । हार गया जिंदगी से ।
    शाम का धुंधलका छाने लगा था ,तपन कुछ कम हुई थी  मरीजों में कानाफूशी होने लगी थी । डाक्टर व उसके कर्मियों पर उँगलियाँ उठने लगी थी । कोई कहता -
एक हफ्ते से नंबर  लगा कर सुबह से शाम हो गई डाक्टर साहब चाहते तो बच्चे को बचा सकते थे
अरे भाई तमाम सिफारिस वालों का अधिकारियों नेताओं को कोई लाइन नहीं लगानी पड़ी । अगर लाइन तोड़ कर ही देख लेते तो क्या हो जाता उसकी हालत कितनी खराब  थी ।
    डाक्टर के खिलाफ आवाज उठानी चाहिए  कई लोगों ने समर्थन किया
 अनन फानन में डाक्टर ने देखने की औपचारिकता निभा प्रीतम को पी जी आई  लखनऊ रेफर कर अपनी जिम्मेदारियों से इतिश्री पा लिया । कर्मियों को जितना शीघ्र हो सके इस मरीज को कैंपस से बाहर करने का निर्देश दे अपने कार्य  में मशगूल हो गया । बाहर कुछ देर तक चर्चा होती रही ,फिर समाप्त लोग अपने मरीजों को दिखा अपने गंतव्य चलते गए ।
      अंबुलेंस अस्पताल से प्रीतम को ले बाहर निकल आई ।
पी जी आई चलना है न माता जी ? ड्राइवर ने पूछा ।
कोई पचास हजार का कम से कम खर्चा आएगा, आगे वहाँ भर्ती होने पर अलग ...
बाबू जी ! अब कुछ और  बेचने को नहीं है, हम कहाँ से इतना पैसा पाएंगे ।
माता जी ! एक बात कहूँ  ड्राइवर ने कहा
बताइये अब क्या उपाय करूँ ।  शांति देवी ने कहा ।
अब सारी कोशिश बेकार है , डाक्टर साहब ने अपना पिंड छुडाने के लिए पी जी आई रेफर किया है । आपका बेटा अब दुनियाँ छोड़ चुका है । एम्बुलेंस किनारे लगा ड्राइवर बड़ी साफ़गोई से बताया ।
माँ शांति देवी, प्रीतम के मृत शरीर से  लिपट संज्ञा- सून्य हो चुकी थीं ।
उदय वीर सिंह





 

रविवार, 1 मई 2016

तोड़ो अदृश्य स्पाती जंजीरें ...

तोड़ो !
अदृश्य स्पाती जंजीरें 
जिसने बांध रखा है जिश्म, मन ही नहीं 
आत्मा को भी ,
कभी कानून कभी नैतिकता 
आचार कभी भूल की ,
कभी धर्म की 
दुहाई देकर ...... 
देश काल दशा दिशा की महावर
पैरों मेँ लगा 
विकृतियों पर ,
इतराने को मजबूर 
अभिशप्त वैधव्य भी धर्म सम्मत अवसर 
सरीखा 
प्रतिदान मानकर जीने का 
अनुष्ठान 
एक कुटिल षडयंत्र ..... 
जलाओ अदृश्य अलिखित 
संहिताएँ 
ध्वस्त हो मंजूषा 
कनक प्रकोष्ठों मेँ 
सेवित विष का 
भंडार  .... 
तोड़ो !
व्यवस्था के नाम 
अत्याचार की 
सुनियोजित कारा ... 

उदय वीर सिंह