रविवार, 3 दिसंबर 2017

मंतू [लघु कथा ]

मंतू [ लघु कथा ]
. ...मंतू बहुत परेशान थी अपनी असफलताओं से अपने निर्णयों से जो स्वयं लिए माँ ने कभी कहा तो उसे चुप करा दिया अपनी उच्च शिक्षा का हवाला देकर माँ के अनुभवों समाज के साथ लंबी यात्रा के पड़ावो को आत्मसात या विश्लेषित किए बगैर .....
मंतू ! तुम्हें तुम्हें मेरी बातों पर गौर करना चाहिए माँ कभी कह देती, फिर बिना प्रतिवाद किए चुप हो शाम की रसोई की तैयारी में लग जाती
हाँ वह बेटी मंतू से पूछ लेती - बेटे ! आज क्या बनाएँ बताओ ?
माँ क्या बनेगा ? छप्पन व्यंजन की आशा तो है नहीं ...निराश ननमाने भाव से कह देती
वो भी मिलेगा बेटा ..रब देगा कोशिश करते हैं हारते नहीं, उदास नहीं होते
माँ शाम को एक कुटीर उद्योग से कार्य कर थक हार कर लौटती....। पति - पुत्र के असामयिक गमन के बाद अब युवा बेटी के साथ अपनी कम उसकी परवरिस सलामती के लिए जिंदा थी । मन में अनेकों प्रश्न झंझावात दुख वियोग संत्रास थे पर बेटी का सूरक्षित जीवन एक मात्र उद्देश्य साथ था ।
गठिया दमा रक्तचापप मधुमेह से ग्रसित थी ....पर आँखों में सूनापन नहीं एक स्वप्न था बेटी के लिए उसकी दुनियाँ उसी से आरंभ होती उसी पर समाप्त
सरकारी नौकरी में चयन एक दिवास्वप्न था आज एक साक्षात्कार के लिए दरिया उस पार एक व्यक्तिगत शिक्षण संस्थान के बुलावे पर मंतू गई थी । माँ ने सवेरे ढेरो सफलता की आशीष व सूरक्षित वापसी की दुआ के साथ आश भरी नजरों से विदा किया था ।
साक्षात्कार से निवृत हो अपनी राह चली मंतू के मन में अशांति वितृष्णा थी कैसे कैसे लोगों अनुभवों से वास्ता पड़ा है कैसे कैसे प्रश्नों समझौतों के प्रस्ताव आए।विकत विकृत प्रश्न थे मानस में जो लगातार प्रहार कर रहे थे
वापसी में नदी पुल पर एक दुर्घटना के कारण यातायात बाधित था बताया गया करीब चार घंटे बाद खुलेगा मंतू ने नाव से घर जाने का निश्चय कए पूल से नीचे नाव क लिए उतर आई थी ।
मश्तिष्क में चयन कर्ताद्वय के प्रश्न आँखों उद्दाम वासना की आग पूर्व के रोजगार दाताओं से कम नहीं कहीं अधिक व पीड़ादायक थी ।आत्मसमर्पण या स्वाभिमान दो पाट बन गए थे, दोनों में से एक की तरफ जाना ही होगा । शाम का धुंधलका बढ़ आया था नाव व पास थी, यात्री भी अधिक नहीं थे । सबको अपने गंतव्य की आतुरता थी । हवा कुछ तेज थी माझी कमजोर कुपोषण का शिकार लगता था । अब नाव की डोर खुल गयी चल पड़अपने गंतव्य की ओर ।
आखिर मंतू रोजगार आयोजकों की शर्तों को माँनने को तैयार थी मन गवाही नहीं कर रहा था .... पर परिश्थितियाँ अनुकूलन में थीं हृदय व्यग्र हो रहा था मृत्यु के सिवा कोई विचार नहीं थे विकल्प में आँसू बह रहे थे अविरल, क्या करे ! जिए या मरे
अचानक हवा तेज हुई कमजोर नाविक नाव संभाल नहीं पा रहा था पुरानी पतवार भी टूट गई ...नव अनियंत्रित हो आगे भंवर की ओर जा रही थी नाव के कुछ यात्री बचाव के लिए नदी धारा में कूद रहे थे। वह तो पानी में तैरना भी नहीं जानती थी । मौत सामने थी ।
माँ की यादों ने उसे विकल कर दिया था ।शाम को वह उसे पुकारते ढूंढेगी माँ मरीज है गँठिया रक्तछाप मधुमेह की वह कैसे जिएगी ...आदि आदि भावनात्मक प्रश्न उसे व्यग्र कर रहे थे आँखों में अंधेरा छाने लगा था .समय कहाँ था अब उसके पास ..
उसे जीने का अदम्य ख्याल आया वह माँ से मिल रोना चाहती थी कोई माँ से ही हल निकलवाना चाहती थी।पर
अब नाव अनियंत्रित हो चली थी असमर्थ यात्री रुदन क्रंदन कर रहे थे शेष कूद गए धारा में ...मंतू भी जीवन रक्षार्थ साहस कर हिचकोले खाती नाव से कूद गई । नाव भंवर की आगोश में थी ।
उदय वीर सिंह



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