शनिवार, 28 सितंबर 2019

भगत सिंह सा बागवाँ देखर -


बदल लेती है रास्ता तकदीर भी,
शहीदे आजम का कारवां देखकर,
चमन भी फूला नहीं समाता,
भगत सिंह सा बागवाँ देखर -
गिरगिट बदल लेता रंग
अक्सर जीने की बेहयाई में,
बदल लेता है पाला महफ़िल में,
भांड भी अक्सर समां देखर -
मतलब परस्तों की दुनियां
सोती रही दुश्मनों की गोंद ,
वतन के सपूत मिटते रहे,
जिगर में ख्वाबे हिन्दुस्ता लेकर -
दीया --मजार शहीदे आजम 
रौशन अख़लाक़ है
तूफान भी रास्ता बदल लेते हैं वन्दगी करके ..

उदय वीर सिंह
उदय वीर सिंह



बुधवार, 25 सितंबर 2019

राह भटकते ज्ञानी -जन


जब राह भटकते ज्ञानी-जन
जनता को आना होता है,
दिशा गंतव्य की बांह पकड़
उन्हें दिखलाना होता है -
बहकी राजनीति के तीर
सदा घावों को देते हैं,
तब पंच प्यारों को मरहम
लेकर आना होता है -
परिभाषा जब मानवता की
विकृत होने लगती है
तब न्याय निहित सद्दभावों का
मर्म बताना होता है -
जनता का मौन ,मूक नहीं
मर्म रेखांकित करती है
उसके एक इशारों पर ही
भूपों को बाहर जाना होता है -
उदय वीर सिंह





मंगलवार, 24 सितंबर 2019

संक्रमित हो चुके अंगों का

संक्रमित हो चुके अंगों का
 मोल नहीं होता है ,
खंडित करना पड़ता है ,
मोह नहीं होता है -
वंदन की परिभाषा सिमित होती जाती है ,
जीवन के निहितार्थ शमन ,
द्रोह नहीं होता है -
जब कलम काम न करती है
शमशीर उठानी पड़ती है ,
कायर-जन आग लगा देते
वीरों को मोल चुकानी पड़ती है -
उदय वीर सिंह

मंगलवार, 17 सितंबर 2019

लहू के कतरे कतरे में.....


हम सारागढ़ी के वीर वतन का मान रखते हैं,
हमने गुरुओं से पाई रीत हथेली जान रखते हैं-
शहीदी शान है अपनी वतन अभिमान है अपना
सदा जीये वतन मेरा यही अरमान रखते हैं-
हम रहे तो क्या गुरुओं की दात का सदका
लहू के कतरे क़तरे में हम हिन्दुस्तान रखते हैं -
उदय वीर सिंह

रविवार, 15 सितंबर 2019

सब तेरी ही जाति के निकले .....


सब तेरी ही जाति के निकले -
मंदिर मस्जिद गुरुद्वारों में
गाँव शहर चौराहों में ,
एक ईश्वर की दात के निकले-
सब मेरी ही जाति के निकले -
आँखों में सपने सबके थे
रंग आंसू के एक मिले थे
संवेदन की राग रसीली
वेदन के रंग एक मिले थे -
मधुराधर शब्दों से आयन
सबसे पहले आप के निकले -
सब मेरी ही जाति के निकले -
शर्दी की पहचान उन्हें थी
तापस दुःख का भान उन्हे था
पावस की शीतलता सुन्दर
अग्नि का संज्ञान उन्हें था -
श्याम-श्वेत के रुधिर एक
एक रब की सौगात के निकले -
सब मेरी ही जाति के निकले -
राग -द्वेष की घटा भी देखी
भूख -प्यास की व्यथा भी देखी
नेह -वैर के अध्याय बधेरे
सुख-दुःख की कथ कथा भी देखी -
कविता की भाषा अलबेली ,
मुक्तक कतआत के निकले -
सब मेरी ही जाति के निकले -
एक कंचन आभूषण बहुतेरे
एक माटी विन्यास बहुत
एक धरती आकाश के जीवक
एक दीपक प्रकाश बहुत -
एक पथ एक स्वरुप दे भेजा
हम क्या देते उस उपकार के बदले -
सब मेरी ही जाति के निकले -
उदय वीर सिंह

सोमवार, 9 सितंबर 2019

वाणी संजीवन

अपार ख़ुशी के साथ भाव साझा करूँ कि , आज मुझे मेरी नवल प्रथम अध्यात्मिक कृति " वाणी संजीवन " का मुख-शीर्षक आवरण प्राप्त हुआ । पुस्तक का प्रकाशन ख्यातिलव्ध हिंदी प्रकाशन संस्थान ' विश्व हिंदी साहित्य परिषद् भारत ' द्वारा किया गया है। जिसके विद्वान प्रकाशक मूर्धन्य हिंदी साहित्यकार व हिंदी-सेवी डॉ आशीष कंधवे जी हैं । जिनके स्नेह सानिध्य ने वरकों को पुस्तक का स्वरुप दिया है । ह्रदय से आभार । आभार समस्त स्नेहियों मित्रों स्वजनों आत्मीयों का . ।
उदय वीर सिंह

रविवार, 8 सितंबर 2019

इसरो [ISRO]

इसरो [ISRO]
का सफ़र अंतहीन
मात्र विरमित हुआ ,
विसर्जित नहीं ......
पुनः गमित होगा अनंत पथ ,
लिखने को अनंत गाथा
अंतरिक्ष की ,रहस्य की,
भारत के असीम ज्ञान,
आत्मबल शौर्य संकल्प की -
मद्धिम होगी नभ-दीप-शिखा
खुलेंगे पट ,नव युग,ग्रहों के
लिए उद्दाम लालसा
जीवन के विकास की
मानवीय उत्कर्ष विन्यास की .....
हो गयी अरदास तो
जत्था मुड़ता नहीं ,
तेरे पद चिन्ह करेंगे सरदारी
ब्रहमांड की आकाश की ----
उदय वीर सिंह

बुधवार, 4 सितंबर 2019

कश्मीर में भारत है ..भारत में कश्मीर है ...


रगों में खून भारत का,खून में कश्मीर है ,
कश्मीर में भारत है, भारत में कश्मीर है-
हिन्दू,सिक्ख मुसलमानों से रोशन जर्रा जर्रा
जब भी वक्त बुरा आया है,हाथों में शमशीर है-
खंडित होकर तन कोई,कब कैसे जीवन पाए,
ईक भाषा ईक शब्द स्वरों में भारत का कश्मीर है-
महक संस्कृति संस्कारों ने चमन निराला सींचा,
संत फकीरों की शाळा, हर गली अमीरों-पीर है -
उदय वीर सिंह


रविवार, 1 सितंबर 2019

बिन पल्लू के सिर को छिपाने की कोशिश ..


कभी तम के दीये बुझाने की कोशिश 
कभी तम में दीपक जलाने की कोशिश 
समय की शिला पर बने चित्र सुन्दर 
कहीं दर्प मद में मिटाने की कोशिश-
बांसुरी ,बे-सूरी हुई भूत कहता 
बिन अँगुलियों के देखी बजाने की कोशिश
गंतव्य कैसा, कहाँ है ,किधर है ?
अपनी चौखट पर बैठे बुलाने की कोशिश-
बृक्षों की शाखें परिंदों का आलय 
मरुस्थल में उनको बुलान्रे की कोशिश-
भीत बालू के कैसे महल कंचनी हो 
बिन पल्लू के सिर को छिपाने की कोशिश -
उदय वीर सिंह