नियति नहीं साज़िश है दोपहर में शाम हो जाना।
आग को सह देना है,हवा का बेलगाम हो जाना।
माज़ी खड़ा है लिए तख्तियों पर अपनी आवाज,
जहन्नम है,जुबान वालों का बेजुबान हो जाना ।
आग चूल्हों में जले तो ईद बैसाखी दिवाली है,
लगी पेट तो लाज़िमी है दौर का हैवान हो जाना
नफ़रत की जमीन पर ज़हर की तिजारत है ,
इंसानियत से दूरी का जमीं आसमान हो जाना।
उदय वीर सिंह।
6 टिप्पणियां:
नियति नहीं साज़िश है दोपहर में शाम हो जाना।
आग को सह देना है,हवा का बेलगाम हो जाना।!!!
वाह👌👌👌 उदय जी, बहुत खूब लिखा आपने। हार्दिक शुभकामनाएं 🙏🙏💐💐
फ़रत की जमीन पर ज़हर की तिजारत है ,
इंसानियत से दूरी का जमीं आसमान हो जाना।
सटीक बात कहती सुन्दर ग़ज़ल .
आपकी इस प्रस्तुति का लिंक 14-04-2021 को चर्चा – 4037 में दिया गया है।
आपकी उपस्थिति मंच की शोभा बढ़ाएगी।
धन्यवाद सहित
दिलबागसिंह विर्क
वाह...!
टिप्पणी प्रकाशित भी किया करें, आपसे विनम्र आग्रह है🙏🙏
उदय जी एक भी टिप्पणी प्रकाशित की आपने। अच्छा है आप टिप्पणी बॉक्स हटा दें ताकि कोई टिप्पणी ना कर सके। बहुत दुखद लगता है modration का होना 😔😔😔😔
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