रविवार, 20 जून 2021

सज़ा जमाने भर की...



गुनाह था रोने का सजा जमाने भर की।

रोटी ख़्वाब में पाया था वो खाने भर की।

कहा हसरतों कोअपना समझकर दौर से,

मयस्सर न हुई जमीं सिर छुपाने भर की।

हकपसंदों की सतर में वो जैसे खड़ा हुआ,

कट गई गर्दन वीर, देर थी उठाने भर की।

वो दौरे यतिमी में रहा दूर दरबार से रहकर,

खुली नसीब देरथी कीमत चुकाने भर की।

बिखर गई कई टुकड़ों में हद समेटी हुई,

सिर्फ़ देर थी दर से मैयत उठाने भर की।

उदय वीर सिंह ।

तेरे ग़म में बराबर ...

मैं कहूँ न कहूँ अपने ग़म साथिया,
तेरे ग़म में बराबर का हकदार हूँ।
किसने लिखा हमको मालूम नहीं,
कहानी का मैं भी एक किरदार हूँ।
हो रहे कत्ल को देखता रह गया,
उस मंजर का मैं भी गुनाहगार हूँ।
न उठेगी नज़र न लिखेगी कलम,
कैसे कह दूं वफ़ा से वफ़ादार हूँ।
उदय वीर सिंह ।


रविवार, 13 जून 2021

मदिरालय की पौड़ी...


मदिरालय की पौड़ी तेरी पीड़ा कौन पढ़ेगा।
शिला खड़ी औजार नहीं मूर्ति कौन गढ़ेगा।
बंद पड़े दरवाजों से फ़रियाद लगाने वाले,
संवेदन विस्थापित है वेदन कौन सुनेगा।
भरा नीर ग्रंथालय में,कहते नयन केआंसू ,
लाचारी में स्वर-व्यंजन चिन्तन कौन लिखेगा।
तक्षशिला नालंदा की ईंट गयीं स्मृतियों से,
आत्म-मुग्धता त्याग,सत-पथ कौन वरेगा।
उदय वीर सिंह ।

ताज पैरहन है सेवादारी का..


आज जो कहा है आपने ,कल आपको सुनना होगा।
बुलंदी ही कुछ ऐसी है,नीचे आसमान के रहना होगा।
सवाल आज भी वही हैं जो कल पूछा था आपने,
अंधेरा है तो हर हाल में चिराग़ों को जलना होगा।
तूफान की भी उम्र लिखी है उसके उठने से पहले,
शमशान गवाह है,जलाने वाले को भी जलना होगा।
जुल्म-ए-तख्त की हिमायत जत्थेदार नहीं करते,
ताज पैरहन है सेवादारी का,सेवादार बनना होगा।
उदय वीर सिंह ।