गुनाह था रोने का सजा जमाने भर की।
रोटी ख़्वाब में पाया था वो खाने भर की।
कहा हसरतों कोअपना समझकर दौर से,
मयस्सर न हुई जमीं सिर छुपाने भर की।
हकपसंदों की सतर में वो जैसे खड़ा हुआ,
कट गई गर्दन वीर, देर थी उठाने भर की।
वो दौरे यतिमी में रहा दूर दरबार से रहकर,
खुली नसीब देरथी कीमत चुकाने भर की।
बिखर गई कई टुकड़ों में हद समेटी हुई,
सिर्फ़ देर थी दर से मैयत उठाने भर की।
उदय वीर सिंह ।