मंगलवार, 31 अगस्त 2021

आ जाओ अब हे केशव..


 





आ जाओ अब हे केशव!

हे मोहन तेरी अकथ प्रतीक्षा

पांडव भी राह भुला बैठे।

कौरव राह लगी सुंदरतम

मारग शांति जला बैठे।

कौरव तो कौरव क्या कहने

युद्ध अशांति ही भाते हैं,

हे केशव सत्ता तीरथ सी

पांडव भी कीच नहा बैठे।

छद्म वेश में आवृत कौन?

ये तुम जानो तुम ज्ञानी हो,

पहचान हुई अब मुश्किल में

जन दोनों लोक गंवा बैठे।

आ जाओ अति देर हुई

ना जाने कित ओर कहाँ बैठे।

उदय वीर सिंह।

सोमवार, 30 अगस्त 2021

" देश की मिट्टी "

   






जहाँ तक मुझे आद आता है मैं पांचवीं कक्षा का छात्र था,सन 1971 की जंग को करीब चार साल बीते हो गए थे । पाकिस्तान के द्वारा थोपी दो जंग भारत देख चूका था जंग में भारत ने पाकिस्तान को करारी शिकश्त ही नहीं दी बलिक पाकिस्तानी सेना को बड़ी लज्जित अवस्था में भारतीय सेना के समक्ष, आत्म- समर्पण करने को मजबूर कर दिया था । भारत की मुक्तिवाहिनी सेना ने पूर्वी पाकिस्तान [वर्तमान बंगलादेश] को आजाद करा कर एक नए स्वतंत्र देश बांग्लादेश का निर्माण करा उनको पशिमी पाकिस्तान [ वर्तमान पाकिस्तान ] की दासता से मुक्त करा दिया ,जो भारत की कूटनीतिक राजनीतिक व सामरिक नीतिओं का स्वर्णिम अध्याय साबित हुआ।

भारतीय जनमानस में पाकिस्तान की पाशविक अमानविय क्रूरता व विस्वासघात के प्रति घोर आक्रोश व्याप्त था। तत्कालीन साहित्य अखबार व लोकगीत पाकिस्तानी आचरण के विरुद्ध भरे पड़े हैं। स्वाभाविक भी था ।
मेरे विद्यालय में वार्षिक खेल कूद व उसके इतर कार्यक्रम बड़े उतसाह से प्रतिवर्ष संपन्न होते थे जो अन्तर्विद्यालयी प्रतियोगिता में श्रेष्ठता के आधार पर प्रतिभागी हो पुरस्कृत होते। इस निमित्त इस वर्ष भी दो माह पूर्व अगस्त माह से ही छात्रों को उनकी अभिरुचि के अनुसार चयन कर प्रतिभागी कार्यक्रमों हेतु योग्य प्रशिक्षकों के निर्देशन में अभ्यास आरम्भ हो गया था।
मेरी अभिरुचि खेलों के साथ काव्य व संगीत में भी थी सो इस हेतु मेरा चयन आरम्भ में ही हो गया। इस दिशा में प्रशिक्षकों के निर्देशन में अपनी जिम्मेदारियों को बड़ी तन्मयता से निर्वहन करने का प्रयास कर रहा था । असफलता स्वयं को ही नहीं विद्यालय की प्रतिष्ठा को भी रेखांकित करती। शिक्षकों,प्रशिक्षकों का मेरे ऊपर विस्वास था,शायद इसी कारण खेल,ममोमा,स्पोर्ट,वाद-विवाद, प्रतियोगिता के साथ संगीत में भी मेरी सक्रिय भागीदारी थी। जिसका मैं बखूबी अभ्यास के दौरान प्रशंसनीय प्रदर्शन भी कर रहा था। कार्यक्रम समन्वयक, शिक्षकों का स्नेह मिल रहा था। इस
सांस्कृतिक कार्यक्रम में एक नाटक जिसका शीर्षक " देश की मिटटी " का भी मंचन होना था,पात्रों के चयनोपरांत मंचित होनेवाले नाटक का विद्यालय के संगीत हाल में अभ्यास चल रहा था।
मैं अपने अभ्यास के उपरांत अन्य कार्यक्रम के अन्य प्रतिभागियों के अभ्यास प्रदर्शन को देख आनंदित होता।
संगीत कक्ष में मंच पर नाटक का अभ्यास चल रहा था, मैं इसे देख रोमांचित होता सोचता -
काश मैं भी इस नाटक का हिस्सा होता। मेरा विस्वास था कि मैं इसे कर सकता हूँ। समस्या थी चयन की,और मैं कई अन्य कार्यक्रम में प्रतिभागी भी था। फिर भी आत्मविश्वास था मुझको। मंचित हो रहे नाटक में मेरा एक सहपाठी कश्मीरी मुसलमान परिवार के बुजुर्ग मुखिया रसूल खानके किरदार में था। जिसका वह बखूबी निर्वहन नहीं कर पा रहा था,कभी वाद-संवाद की कमी कहीं भाव भंगिमा की,कभी भाषा की समस्या उसके सामने आ जाती। शिक्षक,प्रशिक्षक चिंतित थे। नाटक का वह सबसे मजबूत किरदार था, जिसे मजबूती से निभाना आवश्यक था।
मैं पीछे बेंच से उठा और बिना किसी परिणाम को सोचे बोल पड़ा -
सर ! मैं इसे कर सकता हूँ । करके दिखाऊँ ?
प्रशिक्षक एक पल ठहरे फिर ऊपर आने का ईशारा किया।
मैंने उनके कहेनुसार संवाद व भाव भंगिमा सहित किरदार को जीया। तालियां बजे लगी थीं। शायद मैं रसूल खान के किरदार के लिए उपयुक्त था। प्रशिक्षक ने कहा -
इस किरदार को अब तुम निभाओगे। मैंने सहमति में अपना सिर हिलाया।
मुझे आत्मिक खुशी मिली जिसे मैं चाहता था ।
   प्रधानाचार्य जी का आशीष भरा हाथ मेरे सिर पर था। बोले-
   उदय ! तुम्हारे ऊपर बड़ी जिमेदारी है। कई कार्यक्रमों का दायित्व है तुम्हारे ऊपर । विस्वास कायम रखना । मुझे भरोषा है विस्वास खंडित नहीं होगा। विद्यालय की प्रतिष्ठा में कमीं नहीं आएगी। मेरा विद्यालय सदा की भांति इस वर्ष भी अग्रणी रहेगा।
मैं मौन नतमस्तक था ।
देश की मिट्टी में कश्मीरी मुसलमान परिवार के बुजुर्ग मुखिया रसूल खान का एक महत्वपूर्ण किरदार है । पाकिस्तानी ख़ुफ़िया एजेंसियां व उनके द्वारा पोषित अलगाववादी स्थानीय कश्मीरी मुसलमानों को धार्मिक सामाजिक आर्थिक प्रलोभन ही नहीं आतंकित भी करके भारतीय गणतंत्र के विरुद्ध साज़िश में शामिल होने को मजबूर कर रहे थे। उनसे बल पूर्वक शरण व सहयोग की मांग करते थे। इनकार में इज्जत आबरू जान माल से खेलते। स्थानीय युवकों को वगावत के लिए हर तरह के हथकंडे अपना कर जिहाद व इस्लाम के नाम पर उकसाते अपने जाल में फ़ांसते और शोषण करते।
रसूल खान का इकलौता बेटा बिस्मिलाह खान आतंकवादियों की साज़िश का शिकार हो गया। भारत के विरुद्ध पाकिस्तानी एजेंसियों आतंकियों के साथ मिल गया। लालच व दबाव में अपने घर उनको पनाह देने व उनकी मदद के लिए पिता रसूल खान पर दबाव बनाने लगा। पिता रसूल खान ने बेटे को फटकार लगाई,एक वतनपरस्त पिता ने दो टूक जवाब दिया।
" मुझे अपने वतन से बे-पनाह मोहब्बत है। इस देश की मिट्टी से प्यार है "
" क्या समझते हो मैं इस बुढापे में अपनी सफेद दाढ़ी में स्याही लगवा लूंगा ?"
हरगिज़ नहीं।
वहीं छिपे एक आतंकी की गोली का पिता रसूल खान निशाना बन शहादत को प्राप्त करते हैं । बेटा विस्मिल्लाह खान मृत पिता को देख आतंकियों का प्रतिरोध करता है, वह भी आतंकियों की गोली का शिकार हो जाता है।
रसूल खान ने जीते जी अपनी सफेद दाढ़ी में स्याही नहीं लगने दिया।
इस नाट्य मंचन ने विद्यालय को सम्मान दिलाया, मुझे भी विद्यालय ने सम्मानित किया। विद्यालयी दिनों को सोच कर मन आज भी रोमांचित हो उठता है।
उदय वीर सिंह।
***













सहरा पियासा तरसता रहा.....


 





.......✍️

जा के झीलों में बदरा बरसता रहा।

जलता सहरा पियासा तरसता रहा।

दर्द था मर्ज़ का,बोझ था कर्ज़ का,

टूट मनके से मोती बिखरता रहा।

रातभीअजनवी दिन तो पहले से था,

अश्क़ ढ़लते रहे दिल सिसकता रहा।

भूख से आज रुख़सत एक दुनियां हुई,

काफ़िला जश्न का कल गुजरता रहा।

आज पैग़ाम आया कि वो दर बंद है, 

जिस मंजिल की हसरत ले चलता रहा।

उदय वीर सिंह।

शनिवार, 21 अगस्त 2021

अव्यक्त

 उसका आगे बढ़ना  था की लोग पीछे हटते चले गए ,किसी में इतना साहस नहीं था की उस निहत्थे कृशकाय को रोक सके / अपनी शांत निर्बाध धीमी गति से गतिमान चलता रहा उसका ध्यान किसी की भी  तरफ नहीं मौन निर्विकार निस्तेज भाव से अपने अज्ञात अनिश्चित गंतव्य की ओर अग्रसर था ,लोगों के उससे दूर होने डरने या भयभीत होने का उसने कोई कारन किसी से नहीं पूछा / न ही शायद उसने जरुरत ही समझी हो , ना ही  भीड़ या तमाशायियों में  से किसी ने उससे पूछने की कोशिश की हो/  लोग उसे घबरायी आतंकित निगाहों से देख सुरक्षित रास्ता गली तलाश कर उससे दूर हो उस कौतुहल बने अशक्त मानव से अपनी मौन असंवेदनशील जिज्ञाषा भी साधे हुए थे / अन्यथा वो अपने आवास  या सुरक्षित जगहों को जा चुके होते / 

     शाम का धुंधलका घना होने लगा बड़ी चौड़े राजमार्ग से वह जातक उतर एक कम चौड़े मार्ग पर बेसुध चल रहा था,कोई उसके समीप न जा अपना रास्ता बदल उसे अपनी जिज्ञाशाओं का कमतर विषय समझ अपने नियोजित समय को महत्वपूर्ण स्थान दे चला जा रहा था / सबको अपनी फिक्र थी अपने पाल्यों ,परिजनों हितैषियों कुटुंब मित्रों की यह मान कि यह जीवन उनके ही निमित्त है / किसी अजनवी या अन्य निमित्त नहीं/ 

     उस संकरी गली में सामने से आते हुए  दरम्यानी सिंग विशालकाय शरीरधारी सांड का सामना दुर्बल वीमार से हुआ / जातक अपने रस्ते बेफिक्र निर्विकार सिर झुकाए  चलता जा रहा था ,शायद सांड को लगा ये मेरा प्रतिद्वंदी है / सांड ने बिना देर किये अपनी सींगों से भरपूर पुरुषार्थ दिखाते हुए ऊपर उछाल दिया ,जातक की कोई प्रतिक्रिया नहीं थी ,मकान के दीवार से टकराया और जमीन पर  गिर निस्तेज हो गया था / उसके मैले फाटे झोले से कुछ दवा की गोलिया तथा सूखे ब्रेड के कुछ तुकडे बहार बिखर गए ,जिन्हें सांड ने सुंघा और बिना खाए आगे हुंकारते हुए चला गया /

       भीड़ के कुछ लोग  आगे आये थे पर वापस चले गए , सुना  शायद किसी ने पुलिस को इत्तिला किया है ,रात होने को है कल सुबह होगी देखा  जाएगा / जिसका जो कार्य होगा करेगा ,फिलहाल अभी वक्त विलंबित है /

उदय वीर सिंह 

   

सफाई तो बनती है ...






औरों के दर्द के हमदर्द हुए बधाई तो बनती है।
लगे दामन के दाग की भी सफाई तो बनती है।
कातिल को सज़ा मुक़र्रर हो ये इंसाफ होगा।
लगेआप पर इल्जामों की सुनवाई तो बनती है।
तकलीफ़ हुई किसी के घरों में हुई अनबन से,
जो सदियों से बंद बाड़ों में रिहाई तो बनती है।
शहनाईयों का क्या खुशी, मातम में भी बजती हैं
इंसाफ अधूरा है,कलम में रोशनाई तो बनती है।
उदय वीर सिंह। 

शुक्रवार, 20 अगस्त 2021

पसीने की आयतों में हैं....


 





चाय की सियासत नहीं,ये  रोटी की हिमायतों में हैं।

बख्तरबंद-गाड़ी,महलों में नहीं पसीनेकीआयतों में हैं।

मुत्तासिर हैं सिर्फ़ कागज़ों में तंजीमों के अक्लमंद,

ये आज भी मुंतजिर किसी हुक्काम की इनायतों के हैं।

शर्मिन्दा भला कौन होगा इनकी बेबसी गुरबती पर,

भूख से भूख तक का नसीब इनकी रिवायतों में है।

उदय वीर सिंह।

बुधवार, 18 अगस्त 2021

...बामियान होने में..✍️


 









संस्कृतियों के हजारों साल  लगे,उन्हें महान होने में।

दिन के दो-चार लगे बेबसी काअफग़ानिस्तान होने में।

जिस जमीं पर इंसानियत के गुलजार थे सोणे चमन,

बारूदों को अच्छा नहीं लगा बुद्ध का बामियान होने में।

जिन आंखों ने मांगी जिंदगी व सलामती सबकी,

दर-बदर ठोकरों में देख शर्म आती है इंसान होने में।

उदय वीर सिंह।

शनिवार, 14 अगस्त 2021

संवेददना मर गई...










संवेदना मर गयी तो त्राशदी ही हाथ आएगी।

आज सत्ता की जंग कल मौत मुस्करायेगी।

वक्त की आहटों को जब हमने सुना नहीं,

रेत पर कितना लिखो लहर बहाले जाएगी।

जब भी उगेंगे मिट्टी में ही उगेंगे फ़सलो फूल,

पत्थरों की ये हवस जीवन कहाँ ले जाएगी।

इंसानियत की हवा से वैर इतना क्यों है जी,

आदमी से आदमीकी नफरत क्या बनाएगी।

उदय वीर सिंह।

बुधवार, 11 अगस्त 2021

खेत खलिहान के देवों की...








अगर नूर है आंखों में दिखालाई देना चाहिए
देश के इन सेवादारों की परछाईं होना चाहिए।
भीख नहीं वो निज-श्रम की कीमत मांग रहे हैं,
खेत खलिहान के देवों की भरपाई होना चाहिए।
महलों के रहने वालों से इनका गिला नहीं है,
तन-मन से दरवेेशो की सच्चेमन सुनवाई होनी चाहिए।

उदय वीर सिंह।

मंगलवार, 10 अगस्त 2021

कैसे पथ समतल दोगे...

 








.......✍️

पांवो की जूती नहीं है वक्त,ले पहना और चल दोगे।

हिसाब मुक़र्रर कामिल है, आज नहीं तो कल दोगे।

बिखरी-बिखरी सांसों का सहते आघात अहसासों का,

वो निश्छल तन मन के नायक कैसे मैला आँचल दोगे।

टूटेगी हर दीवार ,परिधि ,जब लेगी अंगड़ाई तन्मयता,

पर्वत ,खायीं निर्मित कर ,कैसे पथ समतल दोगे।

काला अतीत आज भी धुंधला मानस में बौनापन है

आडंबर का दर्शन लेकर, तुम कैसे कल उज्वल दोगे।

उदय वीर सिंह।

शनिवार, 7 अगस्त 2021

गुलिस्तां तूफान के हक में...

 

फ़ैसला निजाम के हक़ में।
दर्द साराआवाम के हक़ में।
जमीं आई बागवान के हिस्से,
गुलिस्तां तूफ़ान के हक में।
पसीना मेहनतकश के हिस्से,
शोहरत सुल्तान के हक़ में।
भरोषा था जिन्हें सितम पर,
वो गये बे-ईमान के हक में।
लिएअमन का इश्तिहार गले,
मौत लिखा गुलफ़ाम के हक़ में।
बे-जुबान हो गये न जाने क्यों
था बोलना हिंदुस्तान के हक में।
उदय वीर सिंह ।



गुरुवार, 5 अगस्त 2021

डर जाने के बाद...



टुकड़े ही उठाएंगे बिखर जाने के बाद।

घर दिखाई देता है उतर जाने के बाद।

पाएंगे सौगात जी कफन में लपेट कर,

बे-वजूद हो जाएंगे डर जाने के बाद ।

बाद रुख़्सती के कौन रोता है उम्र भर,

रोते कुछ देर तक ख़बर आने के बाद।

बे-जुबान शहर,तन्हा बोलता रह गया,

इमदाद आयी भी तो मर जाने के बाद।

उदय वीर सिंह।

बुधवार, 4 अगस्त 2021

दरबारों के शान शौक ...

 


दरबारों की शान शौक दरबारी लिखते हैं सौदे का सामान प्रीत व्यापारी लिखते हैं जीवन हर पल समिधा यज्ञ सृजन की , याचन की वृत्ति भीख भिखारी लिखते हैं - उदय वीर सिंह

सोमवार, 2 अगस्त 2021

मेरा शहर मुझसे अनजान हो गया है...

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ये शहर मेरा मुझसेअनजान हो गया है।
एक भरोषा था कहीं गुमनाम हो गया है।
पगडंडियां ही सही दिल को जोड़ती थीं,
अब बे-मोड़ हाईवे का निर्मान हो गया है।
सदाआयी पड़ोसी की मोहल्ला सजग हुआ
अख़बारी खबर का अब इंतजाम हो गया है।
शुक्र है हम चले कुछ तरक्की की राह पर
ईमान बाजार का सस्ता सामान हो गया है।
उदय वीर सिंह।