...बेटी दया की पात्र नहीं✍️
बेटी ( माधवी) के अंतिम निर्णय को प्रथम निर्णय लेने का जन्मजात अधिकार हो...! ययाति ,विश्वामित्र ,गालव की बेटी मात्र स्वार्थ-साधक नहीं..।
जब एक बेटी (माँ ) ही ,एक बेटी ( देवी) से एक चिराग( बेटा ) मांगती हो, कोख में एक बेटी के आने की आहट मात्र से कुटुंब लज्जित होता हो,बेटी का छठिहार (जन्म का स्वागत) वर्जित हो , बेटी का विधवा होना कुलों को अभिशापित करता हो, बेटी का सिर ऊंचा हो जाना कुल मर्यादा के विपरीत आचरण माना जाता हो, स्वयं का निर्णय, मूल्यों का अतिक्रमण घोषित होता हो, नारीत्व घोर नर्क का द्वार। बनता हो.....आदि आदि
...फिर बेटी का उद्धार यक्ष प्रश्न बनकर उभरता है।
"पानी है बंद बोतल
बंद दरवाजे हैं,
आंखों में नीर ले
चिरैया पियासी है।
पीर है पहाड़ जैसी
ढलती न गलती है,
सोने के पिंजरे में
बैठी उदासी है।"
उदय वीर सिंह ।
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