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आंधियां चल रही हैं चिराग़ भी जल रहे हैं।
आंधियों से ही बल चिराग़ों को मिल रहे हैं।
कांटों की सेज से भी गमो रश्क नहीं कोई,
नींद बहुत गहरी है, ख़्वाब भी मचल रहे हैं।
कम न होंगे कभी शीशों के दीवारे शहर,
सुना है शर्मसार हो पत्थर भी पिघल रहे हैं।
उम्र फ़रेब की बहुत लंबी नहीं होती मितरां,
पर्वतों के भीतर बहुत सोते भी पल रहे हैं।
उदय वीर सिंह।
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