गुरुवार, 30 जून 2022

क्या बनना था ..

 





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क्या बनाना था इसे क्या बनाकर रख दिया।
फूल रखने थे जहां कांटे बिछाकर रख दिया।
हसरतों की छांव में कुछ पल बिताने की कशिश,
खोलना था द्वार को ताला लगाकर रख दिया।
दे दी दवा हकीम ने ख़ैरात की झोली समझ,
प्यास में मदिरा मिली पानी छिपाकर रख दिया ।
ढूंढते मंजिल मुसाफ़िर राह उनकी गुमशुदा,
राह में दीपक जलाया फिर बुझाकर रख दिया।
उदय वीर सिंह।

शनिवार, 25 जून 2022

सच्चा सरदार मिलता है


 





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नसीब से काफिलों को सच्चा 

सरदार मिलता है।

इम्तिहानों के बाद जमाने को 

एतबार मिलता है।

आसान नहीं है उतारना जहालत 

के पर्दों को,

दिलवालों की ही जिंदगी में सोणा 

प्यार मिलता है।

ख़ामोशियां इसरार का सबब बन

जाती हैं,

जब उठती है आवाज तो कामिल 

अधिकार मिलता है।

गिरवी जमीर से इंसाफ की उम्मीद 

बेमानी है,

हकपसंदों को सलीब कमज़र्फ को 

पुरस्कार मिलता है।

उदय वीर सिंह।

शुक्रवार, 17 जून 2022

बंजर होती संस्कृति (कहानी संग्रह)


 




🙏सतनाम श्री वाहेगुरु जी !

  " बंजर होती संस्कृति"

मेर नवीन कहानी संग्रह

प्रिय सुधीजनों, मित्रों, स्नेहियों!  खुशी के पल आपसे साझा करते हुए हर्षित हृदय से आप सबके स्नेह व सम्मान का ऋणी हूँ। 

  मेरे बहुप्रतीक्षित  नवीन कथा संग्रह " बंजर होती संस्कृति " का प्रकाशन हो ही गया। उसकी प्रतियां आज मुझे प्राप्त हुईं। पुस्तक  आवरण, संक्षिप्त विन्यास आप सबके अवलोकनार्थ संप्रेषित कर हृदय आह्लादित भावों से भर उठा। 

पुस्तक का प्रकाशन स्वनामधन्य प्रकाशन  " हंस प्रकाशन " से हुआ है। ख्यातिलव्ध प्रकाशन व माननीय प्रकाशक का हृदय से आभार  ।

    यह कथा संग्रह भी पूर्व रचना कृतियों की तरह आप सबके स्नेह से सिंचित होगा ऐसा मेरा दृढ़ विस्वास है। 

  मैं कितना आपके मानदंडों पर खरा उतरा हूँ ,आपकी आलोचना समालोचना, प्रतिक्रिया की मुझे प्रतीक्षा रहेगी। 

    पुनः सर्वोपरि श्री गुरुग्रंथ साहिब जी महाराज की छांव , गुरुशिक्षकों ,परिजनों पाल्यों, सम्बन्धियों मित्रों सुधि- पाठकों शभचिन्तकों को मेरा विनीत भाव से नमन व हृदय से आभार।

उदय वीर सिंह।

शनिवार, 11 जून 2022

दिन चैन के कमतर हुए...








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आंसुओं  के ढेर  पर ही तामीर  मुर्दाघर हुए।

दीन की चाहत लिए आबाद इबादतघर हुए।

रहबरी शमशीर के हाथ जब भी काबिज हुई,

खून की नदियां बहीं दिन चैन के कमतर हुए।अपनी ही बुनियाद की मज़बूतियाँ भी देखना

पत्थर लगे थे शोध कर हिलने लगे जर्जर हुए।

न सहेजा न तराशा सब आकर्षण चला गया,

दामन भरे थे फूल से कैसे हाथ में पत्थर हुए।

जन्मदात्री है बिखराव की गुरुत्वाकर्षणविहीनता

जो  ग्रह  थे परिक्रमा में टूट  तीतर-बितर हुए।

देख लेते एक बार अपने घर की गिरती दीवार

बंद आंखें मुस्कराते रहे घर कंगूरे खंडहर हुए।

उदय वीर सिंह।