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कंपित मझधार सफ़ीना है।
सच बोल हलाहल पीना है।
तेजाबी बारिश का आलम
बे-चैन परिंदे दर ढूंढ रहे,
पूछ रहे घर कौन हमारा,
पर काशी मौन मदीना है।
बेड़ी पांव हाथ हथकड़ियां
रांह कंटीली खंडित पथ,
हैं आंसू स्रोत नीर के बनते,
अधरों को अपने सीना है।
उदय वीर सिंह।
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