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बंदीछोड़ दिवस (अक्टू 1621 ई.)
सिक्ख धर्म के छठवें पातशाह गुरु हरिगोबिन्द साहिब जी महाराज के रूहानी व दुनियावी बुलंद रुतबे के आलोक को स्वीकार करते हुए मुग़ल सल्तनत के तत्कालीन बादशाह जहांगीर ( शासन काल 1605 से- 1627 ) ने गवालियर (मध्य प्रदेश) के किले में 52 हिन्दू राजा बंदियों व छठवें गुरु महाराज भी दो वर्ष से कैद थे।
बादशाह की शारिरीक व शासकीय हालत लगातार खराब होती जा रही थी ।तमाम कोशिशों के बाद भी मुश्किलें खत्म होने का नाम नहीं ले रही थीं। बादशाह को ख्वाबों में बार बार गुरु साहिब को रिहा करने का इल्हामी हुक्म मिल रहा था ,जिससे वो बहुत परेशान था,समस्या से निजात के लिए अपनी मरकजी हुकूमती कैबिनेट व फकीरों की सलाह पर गुरु महाराज को उसने रिहा करने का फैसला में कर लिया ।
किंतु गुरु साहिब अकेले रिहा होने को तैयार नहीं हुए। उन्होंने बादशाह को अवगत कराया कि वे बगैर 52 बंदी राजाओं के कैद से रिहा नहीं होंगे।
सल्तनत की नजर में इन 52 भूपों को छोड़ना आत्मघाती कदम था। परंतु वे गुरु साहिब के फैसले के आगे विवश थे ,सशर्त सबकी रिहाई का फरमान ई.सन 1621 में जारी हुआ।
जिन राजाओं से सल्तनत के अस्तित्व को गंभीर खतरा था इस आशय के साथ रिहाई का आदेश जारी किया गया कि जितने राजा गुरु हरिगोबिन्द साहिब को पकड़ कर साथ जा सकते हों, कैद से मुक्त होकर जा सकते हैं।
इसी शर्त के अनुपालन में गुरु महाराज ने 52 कलियों (पताकों )का एक अंगरखा बनवाया जिसे पकड़ समस्त 52 कैदी हिंदू भूप किले से बाहर निकल कैद से मुक्त हुए।
गुरु साहिब इसी दिन अमृतसर साहिब (पंजाब) पहुंचे यह शुभ दिन ज्योति पर्व दीपावली का था। सिक्ख व हिन्दू जनमानस द्वारा दीप प्रज्वलित कर हृदय से स्वागत व वन्दन किया गया।
इसी दिन से इस दिवस को " दाता बंदी छोड़ दिवस" के रूप में देश दुनियां में खुशी के साथ मनाया जाने लगा ।यह सिक्ख व दिन्दू जन-मानस के लिए अमूल्य व मान का दिन था।
जिस ग्वालियर के किले में गुरु साहिब व राजा कैद थे उस किले की जगह 1968 में संत अमर सिंह जी द्वारा एक भव्य गुरुद्वारा बनवाया गया। जिसे ' दाता बंदी छोड़ गुरुद्वारा ' के नाम से आज जाना जाता है।
उदय वीर सिंह।