......जीवन का सर्ग ✍️
छोड़ कल्पना कल्प कलिल
यथार्थ धरा तल आओ जी।
त्याग विरुदावली दरबारी
कुछ लोक रसायन गाओ जी।
पांव पीर तल फटी विबाई
जतन बहुत पर भर न पाई,
हर्ष अलंकार रस भरी किताबें
निज कंठ सरस कुछ गाओजी।
भरा प्रेम से हर पन्ना - पन्ना
गति पवन घृणा की थम न पाई
रंगमहलों के तज ललित व्यास
कुछअबलों की व्यथा सुनाओ जी।
रस भरे अधर तन कंचन की
धन कुबेर मद अतिरंजन की
यश गाथा से भरे अम्बर अवनी
मजलूमों की कुछ खैर मनाओ जी।
राग रंग रति दिव्यों के मंडन
का अतिरंजन तज,
यह रीतिकाल का कल्प नहीं
जीवन का सर्ग बताओ जी।
उदय वीर सिंह।
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