मुकद्दस हवाएं भी परेशान लगती हैं।
पातों की खड़खड़ाहट तूफान लगती हैं।
आग से शोर तो लाजमी है बस्तियों में,
महलों की कैफ़ियत शमशान लगती हैं।
गिर रहे पत्ते पेड़ों से कितने जर्द होकर,
ये फ़िजाएँ बसंत की बेईमान लगती हैं।
उड़ रहे परिंदे दरख़्तों से,पा कोई आहट,
आरियों की आमद शाखें नीलाम लगती हैं।
कागज़ी फूलो गुलशन का जमाल कायम,
गंध-पसंद तितलियां मेहरबान लगती हैं।
उदय वीर सिंह ।
5 टिप्पणियां:
पतझड़ के बाद तो बहार आनी ही है, मन के एहसासों की अभिव्यक्ति।
बहुत खूब !
पतझड़ के बाद बसंत प्रकृति का नियम है।
सुंदर प्रस्तुति।
उड़ रहे परिंदे दरख़्तों से,पा कोई आहट,
आरियों की आमद शाखें नीलाम लगती हैं।
बहुत सुंदर सार्थक...
सारगर्भित सृजन।
वाह!
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