सोमवार, 27 सितंबर 2010

सम्बेदना

 काशी काबा के दर पे झगरते रहे /
घृणा से हम दमन को भरते रहे /
क्या टुटा, क्या छूटा, न सोचा कभी ,
ताल,सुर के बिना हम थिरकते रहे /
        आस ले,फासले कुछ काम तो हुए ,
        एक दिशा में पगों का गमन तो हुआ /
        साथ चलते रहे बात बन जाएगी ,
        दो रूठे दिलों का मिलन तो हुआ/
आंधियों का सहर दीप जलते रहे -
         लहरों का उठाना मुनासिब तो  है ,
          बह के लहरों संग जाना सहादत नहीं /
          चुन लो मोती अमन के,पा गहराइयाँ , 
         डूब जांए कही तो शिकायत नहीं /

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