फूलों की वीथियों में ,शूलों को पाए हैं ,
जख्म इतने गहरे हैं ,भूले न भुलाये हैं -
टूटे थे पत्ते कितने तरुअर की साखों से ,
आँधियों के काफिलों ने कैसे विखराए हैं -
मुसव्वीर थे ख्वाबों के कितने उकेरे हैं ,
घोलने को रंगों को, आंसू मिलाये हैं
तासों के पत्तों से महल क्यों बनाया था ,
हाथ कितने ख़ाली हैं, आशामां के साये हैं -
कहने को तो दुनिया सारी अपनी सी लगती है ,
अपनों की दुनियां में हम , कितने पराये हैं -
उदय वीर सिंह
जख्म इतने गहरे हैं ,भूले न भुलाये हैं -
टूटे थे पत्ते कितने तरुअर की साखों से ,
आँधियों के काफिलों ने कैसे विखराए हैं -
मुसव्वीर थे ख्वाबों के कितने उकेरे हैं ,
घोलने को रंगों को, आंसू मिलाये हैं
तासों के पत्तों से महल क्यों बनाया था ,
हाथ कितने ख़ाली हैं, आशामां के साये हैं -
कहने को तो दुनिया सारी अपनी सी लगती है ,
अपनों की दुनियां में हम , कितने पराये हैं -
उदय वीर सिंह
6 टिप्पणियां:
दुनिया को जब अपना समझा, तब ही हुयी परायी रे,
कहने को तो दुनिया सारी अपनी सी लगती है ,
अपनों की दुनियां में हम , कितने पराये हैं -
आपके दिल की टीस दिल को छू रही है.
"सदके जावां" शीर्षक बहुत कुछ कह रहा है.
गम में भी खुद को भुला तसल्ली
देता हुआ.
अनुपम प्रस्तुति के लिए आभार,उदय जी.
कहने को तो दुनिया सारी अपनी सी लगती है ,
अपनों की दुनियां में हम , कितने पराये हैं
इंसान अकेले आया है और अकेले ही जाना है. सुंदर भाव के साथ बढ़िया प्रस्तुति.
सशक्त और प्रभावशाली रचना|
वाह ...बहुत ही सुन्दर पंक्तियाँ
वियोग शृंगार का भी अपना ही रस है।
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