गुरुवार, 29 मार्च 2012

सौम्य भारत में

सौम्य  भारत  में  सोमालिया  रहता    है ,
ओढ़ता,पहनता, बिछाता है दर्द ,सहता है -


मजहब    की  ऊँची  दीवारों  में 
नफ़रत    का   शहर     कायम -
इन्शान सी शक्ल तो दिखती है ,
जिगर    में     जहर     कायम-


दाग     इतने    की     दोज़ख    भी   शर्माए,
कुफ्र का रिजवान दुसरे को काफ़िर कहता है -


सदियों से   रोशनी  को मोहताज
 छिपता  है  छिपाने   को    लाज-
जंगल पहाड़ शरण स्थली उसकी ,
दूर हैकितनी विकास की आवाज -


ब्रह्माण्ड के किसी  कोने में नहीं  स्वदेश में 
आदिम   स्वरुप   में  रहने की विवसता है-


पैर   रखे    है   सदियों   से    जहाँ ,
वह ज़मीन भी किसी सेठ के नाम -
जानवर तो संरक्षित किये जाते हैं 
इन्सान,बहसी माफ़ीयाओं के नाम-


जानवरों की तरह शिकार है जर ज़मीन आबरू ,
सूखा   पत्ता   भी   नहीं   मेरा   कहता   है -


हर    बाद    का   प्रणेता    अवसाद  में ,
तलाश   इश्वर   की   इश्वर   बन  गया 
भूखा व भरे पेट का   फर्क   नहीं मालूम ,
दैन्यता की भूमि में बैमनस्यता बो गया 


दे अंतहीन बेड़ियाँ ,यातना तिरस्कार की,
नासमझ ,मजबूर को नासमझ कहता है-


प्रज्ञा  शुचिता  का   दंभ   इतना  कि,
न  बन    पाया   इन्सान अब    तक -

कुत्तों कीतरह इलाका बनाये लड़ रहा ,
बंटा इर्ष्या मेंजीवन से शमसान तक -


मनुष्यता की लौ जले भारतीयता के दीप से  
सर्वे  भवन्ति सुखिनः  का   भाव   रचता  है -
फिर भी -
एक इन्सान एक इन्सान से
कितना दूर रहता है ----


                                     उदय वीर सिंह 
                                       29/03/2012



  

8 टिप्‍पणियां:

ANULATA RAJ NAIR ने कहा…

वाह!!!

इस उत्तम कृति के लिए बधाइयाँ स्वीकारें.

सादर
अनु

धीरेन्द्र सिंह भदौरिया ने कहा…

वाह ! ! ! ! ! बहुत खूब उदय जी,...बधाई
बहुत ही सुंदर रचना,बेहतरीन भाव प्रस्तुति,....


MY RECENT POST ...फुहार....: बस! काम इतना करें....

प्रवीण पाण्डेय ने कहा…

पहली पंक्ति ने ही सब स्पष्ट कर दिया, अद्भुत विश्लेषण से भरी रचना।

S.M.HABIB (Sanjay Mishra 'Habib') ने कहा…

सौम्य भारत में सोमालिया रहता है.....

एक ही पंक्ति में सब कुछ कह दिया.....
बहुत ही सुन्दर रचना...
सादर.

Kailash Sharma ने कहा…

बहुत सुन्दर और सटीक अभिव्यक्ति...

Maheshwari kaneri ने कहा…

वाह: बहुत सुन्दर प्रस्तुति ..उदय जी..बधाई

Surendra shukla" Bhramar"5 ने कहा…

हर बाद का प्रणेता अवसाद में ,
तलाश इश्वर की इश्वर बन गया
भूखा व भरे पेट का फर्क नहीं मालूम ,
दैन्यता की भूमि में बैमनस्यता बो गया


दे अंतहीन बेड़ियाँ ,यातना तिरस्कार की,
नासमझ ,मजबूर को नासमझ कहता है-
बहुत ही गहन और गंभीर भाव ..सुन्दर शब्दों का संयोजन उदय वीर जी बहुत खूब जीवन दर्शन बधाई हो
राम नवमी की हार्दिक शुभ कामनाएं इस जहां की सारी खुशियाँ आप को मिलें आप सौभाग्यशाली हों गुल और गुलशन खिला रहे मन मिला रहे प्यार बना रहे दिन दूनी रात चौगुनी प्रगति होती रहे ...
सब मंगलमय हो --भ्रमर५

महेन्‍द्र वर्मा ने कहा…

मजहब की ऊँची दीवारों में
नफरत का शहर कायम -
इन्शान सी शक्ल तो दिखती है ,
जिगर में जहर कायम-

अपने समय की विद्रूपताओं को सहजता से अभिव्यक्त करती अच्छी कविता।