रविवार, 15 अप्रैल 2012

मुक्तसर

आँगन  में जब खिला तो ,सौगात की तरह था ,
खेतों में खिल रहा है ,खर -पतवार की तरह है -              


आँचल वो  अंक  में था, निशान -ए - आशिकी ,
बिकने लगा बाजार में,अब सामान  की तरह है-          


खुशबू  के  काफिलों  का ,सरदार  की तरह था ,
खुशबू ने छोड़ा दामन, अब व्यापार की तरह है-


आँचल में छुपाये हांड़ीयां ,दिल का  निजाम था ,        
रस्मों -अदायगी  में अब ,निशान   की  तरह है -


एक  फूल  था मुकम्मल , बसाने  को  जिंदगी ,
जमाल  की तरह था ,  वह  ख़ार  की तरह   है -


मीरो   - फकीर , सब   ने  उसकी  मिशाल   दी ,
हर जवाब  की सिफ़त ,अब  सवाल की तरह है-


                                                             उदय वीर सिंह  
                                                             15-04-2012 

9 टिप्‍पणियां:

ANULATA RAJ NAIR ने कहा…

बहुत खूब!!!!!!!!!!!!

ANULATA RAJ NAIR ने कहा…

बहुत खूब!!!!!!!!!!!!

Sunil Kumar ने कहा…

बहुत खुबसूरत ग़ज़ल.....

धीरेन्द्र सिंह भदौरिया ने कहा…

एक फूल था मुकम्मल,बसाने को जिंदगी ,
जमाल की तरह था,वह ख़ार की तरह है

बहुत खूब!!!! सुंदर गजल लगी,..उदयवीर जी
.
MY RECENT POST...काव्यान्जलि ...: आँसुओं की कीमत,....

Rajesh Kumari ने कहा…

बहुत उम्दा ग़ज़ल बहुत पसंद आई

प्रवीण पाण्डेय ने कहा…

सच कहा आपने, उत्तर की अपेक्षा ही प्रश्न बनती जा रही है।

S.M.HABIB (Sanjay Mishra 'Habib') ने कहा…

हर जवाब की सिफत अब सवाल की तरह है...
बहुत खूब.... सुन्दर अशार...
सादर बधाई.

चन्द्र भूषण मिश्र ‘ग़ाफ़िल’ ने कहा…

बहुत सुन्दर वाह!

चन्द्र भूषण मिश्र ‘ग़ाफ़िल’ ने कहा…

बहुत सुन्दर वाह!