गुरुवार, 21 मार्च 2013

जां -निसार


ज़माने को एतबार था तुम्हारी नुरे-नज्म  पर
आज  नज्म  और ज़माने  में  फासला क्यूँ  है  -

इन्तखाब करती थी ज़माने को अपनी सी लगी
दर्द  को  दर्द  लिखता  था अब मुकरता क्यों  है -

तंग   राहों   के,  रंज  लिखता  था  बेख़ौफ़  यारा
मंजर वही हालात बदतर मुक़द्दस कहता क्यूँ  है  -

माना की तेरा आना-जाना बेटोक है राजमहलों में
तूं   दफ़न   कहाँ    होगा  आखिर  भूलता  क्यूँ  है  -

तेरी  नज्म  की  जादूगरी  होठों  पर लहराती रही
अब  क्या   है   तेरी   बेबसी बता, छुपाता क्यों  है  -

कितने जख्म गहरे, ज़माने  के सीने में छिपे हुए
अपने    मामूली    से    जख्म    दिखाता   क्यूँ  है  -

                                                   -   उदय वीर सिंह



4 टिप्‍पणियां:

प्रवीण पाण्डेय ने कहा…

जीवन को हल्का फुल्का बना कर जीवन के गहरे जख्म छिपा जाते हैं मतवाले..

धीरेन्द्र सिंह भदौरिया ने कहा…

बहुत उम्दा भाव पूर्ण सुंदर प्रस्तुति,,

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अरुन अनन्त ने कहा…

आपकी इस प्रविष्टी की चर्चा कल रविवार (24-03-2013) के चर्चा मंच 1193 पर भी होगी. सूचनार्थ

कालीपद "प्रसाद" ने कहा…

खुबसूरत रचना , होली की शुभकामनाएं
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