गुरुवार, 14 नवंबर 2013

लिखता हूँ इन्कलाब ,...

उसके नोचे गए बदन की पड़ताल में 
दूरबीन लगाता है, 
बहसी घूमता है सरेआम,
ये क़ानून तलाशता है -
**
लिखता हूँ इन्कलाब ,
बेअदब हो जाती है कलम ,
मुर्दों का शहर किसको जगा रहे हो -
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तेरी मेंहरबानियों का मुझे गिला है ,
गर न होतीं तो मुझे रास्ता मिल गया होता -
**
जज्बातों  के घरौंदे टूट जाते हैं अक्सर 
पत्थरों को  जज्बात देके क्या करोगे- 
 **   
                          - उदय वीर सिंह .

3 टिप्‍पणियां:

Vaanbhatt ने कहा…

बहुत खूब...

Asha Joglekar ने कहा…

बहुत सुंदर सच्ची प्रस्तुति।

विभूति" ने कहा…

भावो का सुन्दर समायोजन......