बोलती थी जुबान अब गूंगी है
तासीर कानों की बहरी हो गयी है
मेरी देशी भाषा दिल के करीब थी
न जाने कब वो शहरी हो गयी है -
राजकुमारी थी दादके नानके में
ससुराल में बेटी महरी हो गयी है -
एक मैदान में खेला करते कबड्डियां
वो सीमा खायीं बन गहरी हो गयी है -
कितनी विशाल थी प्यार की झील
सिमट कर आज गगरी हो गयी है -
कौरवों के हिस्से में बसंत आया है
पांडवों के हिस्से बदरी हो गयी है -
- उदय वीर सिंह
तासीर कानों की बहरी हो गयी है
मेरी देशी भाषा दिल के करीब थी
न जाने कब वो शहरी हो गयी है -
राजकुमारी थी दादके नानके में
ससुराल में बेटी महरी हो गयी है -
एक मैदान में खेला करते कबड्डियां
वो सीमा खायीं बन गहरी हो गयी है -
कितनी विशाल थी प्यार की झील
सिमट कर आज गगरी हो गयी है -
कौरवों के हिस्से में बसंत आया है
पांडवों के हिस्से बदरी हो गयी है -
- उदय वीर सिंह
5 टिप्पणियां:
कितनी वेदना है आपके शब्दों में !!बस कुछ आस्थाओं को बचा के रखना है ...!!वही हमारे हिस्से का काम है ...!!हृदय स्पर्शी पंक्तियाँ ...!!
ब्लॉग बुलेटिन की आज की बुलेटिन राय का लेन देन - ब्लॉग बुलेटिन मे आपकी पोस्ट को भी शामिल किया गया है ... सादर आभार !
सचमुच, समय कितना बादल गया है।
गहरी पीड़ा व्यक्त करते आपके शब्द।
बहुत सुंदर रचना !
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