शनिवार, 18 अप्रैल 2015

कहाँ बदला है आदमी ....

नफ़रत की आग में कितना जला है आदमी
आज भी अपनी ही रौ कहाँ बदला है आदमी -
धर्म के हरकारे वहीं जाति का बंधन वहीं
क्षेत्र की विभीषिका भाषा का क्रंदन वहीं । 
खा असंख्य ठोकरें कहाँ संभला है आदमी -
गोरी त्वचा काली त्वचा विष वमन का दौर
ज्ञान चक्षु बंद है बनी अज्ञानता सिरमौर ।
वांछित विकास पथ छोड़ कहाँ चला है आदमी -
शव के ऊपर पग धरे चाहता गंतव्य को
तोड़कर निर्देश नीति चाहता मंतव्य को ।
औचित्य का संज्ञान ले कहाँ मिला है आदमी -
विषमताओं का परिवेश फिर भी उन्माद में
परिमार्जन को त्याग कर ,अशेष है संवाद में ।
मानस में अपना पराया भूला कहाँ है आदमी -
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2 टिप्‍पणियां:

डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक' ने कहा…

आपकी इस प्रविष्टि् की चर्चा कल रविवार (19-04-2015) को "अपनापन ही रिक्‍तता को भरता है" (चर्चा - 1950) पर भी होगी।
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सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
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सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक

Onkar ने कहा…

बहुत सुन्दर