ख़ैर-
हमको सम्हाला मुशीबतों ने
ख़ैर हमसे रूस गई -
अच्छा हुआ तन्हा नहीं मैं
घर हमारे बस गई -
मैं उडीकां बीच नहीं हूण
नाल आती ले सुबह नई -
चाहता मसर्रत जाए वहाँ
जहां हसरत अधूरी रह गई -
शाख का पत्ता सरिखा
हवा फिर मौज लेकर बह गई
खोल कर रखना जिगर
जाते जाते कह गई -
उदय वीर सिंह
1 टिप्पणी:
आपकी इस प्रस्तुति का लिंक 30 - 04 - 2015 को चर्चा मंच चर्चा - 1961 { मौसम ने करवट बदली } में पर दिया जाएगा
धन्यवाद
एक टिप्पणी भेजें