ईश्वर के बाद के ईश्वर -
गौर करें ! कैसा लगा होगा जब तथाकथित म्लेच्छों ने आर्यावर्त पर अपने पाँव रखे होंगे । दसवीं शताब्दी में दरवेशों ने अपने धर्म की व्यख्या इस तथाकथित देवभूमि पर आरंभ की होगी । राजा दाहिर की पराजय ने बेशुमार शर्तों को अंगीकार किया होगा । उपरांत पृथ्वीराज चौहान की महामंडित सेना के विदेशी आक्रांताओं के समक्ष घुटने टेक देने पर । सेवा में चल रहे अछूत से किसी सैनिक का कदाचित स्पर्श हो जाने के कारण ,सैनिक द्वारा शुद्धिकरण हेतु रणभूमि छोड़ ,अधिकृत व्यक्ति से पवित्र गंगाजल वर्षण हेतु वापस आना । आत्म सम्मान ,पुत्री अस्मिता राजधर्म के संरक्षार्थ आक्रांता से गलबहियाँ, हजारों जयचदों का दर्द ।
कैसा लगा होगा जब धर्माधिकारी द्वारा किले की बावडी के जल को लोभ या दबाव में अपवित्र घोषित किया गया होगा । पूलिंग जाति के नौनिहालों से लेकर बृद्धों तक की नृशंश हत्या की गयी होगी ।स्त्रीलिंग जाति के साथ अमानवीय व्यवहार ही नहीं क्रूरता की सीमाएं लांघी गयी होगी । पड़ोसी मूकदर्शक बने रहे । धर्म - वेत्ताओं का अलोप हो जाना या दासता की स्वीकारोक्ति । पद- प्रतिष्ठा के लिए के लिए राज-धर्म की नई परिभाषा का सृजन ,श्रमहीन नैराश्य परजीवियों का मृत्यु की सीमा तक लांघ जाने का आक्रोश ,राष्ट्र की निष्ठा से बहुत दूर आक्रांता -द्रोहीयों का स्वागत .......कैसा लगा होगा ।
कैस लगा होगा वो सौहार्द जब राजा भारमल ,बीरबल , टोडरमल ,राजा मानसिंह ,अभय सिंह सरीखे हजारों ने अपनी बेटियाँ की डोली को कंधा दे स्वेच्छा से विधर्मियों को समर्पित किया । पीछे जम्हूरियत ने अनुसरण किया ।
शायद यह कोई रणनीति रही होगी या धर्म का विशेष दर्शन । यह आज भी संज्ञान में होने के बाद भी अबूझ रहस्यमई बना हुआ है । कदाचित हम अपनी कायरता को विशिष्ट शैली की संज्ञा दे इतिश्री कर लेते हैं । जैसे किसी सुतुरमुर्ग का रेत में सिर छिपा लेना ।
अतिथि देव भवः की परंपरा में, अतिथि प्यारे लगे उनके आदर्श अच्छे लगे और वे जमीन पाते गए, फैलते गए । चाहे वे मुसलमान हों या ईसाई । उनके बल प्रयोग और बलात से भी इंकार नहीं किया जा सकता, हुआ भी । परंतु ऐसा माना जाता है ये कृत्य [परिवर्तन ] स्थायी नहीं होते । अफसोश वे पुनःअपने तथाकथित आदर्श धर्म की ओर रुख नहीं किया । नहीं लौटे । निश्चित रूप से वे आज हमारे शंसय का वे कारण हैं।
हमारी भाव प्रवरता में सर्वप्रथम जाति, द्वितीय धर्म, तृतीय स्थान में राष्ट्र रहा, जिसका प्रभाव आज भी उसी रूप में है । कथ्य और कर्म में जमीन आसमान का फर्क ।हमारे आदर्श ,सूत्र वाक्य बन कर रह गए ,यह अंतर विषद रूप लेता गया ।
पश्चिमोत्तर- उत्तर भारत में सिक्ख गुरुओं का अप्रतिम निष्ठा के साथ राष्ट्र प्रेमियों ने स्वागत किया । परोक्ष -अपरोक्ष रूप में अपना सर्वस्व न्योछावर किया । वहीं द्रोहियों ने विधर्मियों का खुल कर साथ और समर्थन दिया । ज़्यादातर वही आज हिन्दू धर्म के खास पैरोकार दिखाई देते हैं ।
धर्म का ठेकेदार जब घोषित करता है की हजार शूद्र एक गाय के बराबर होता है और वह अपने कत्थ पर कोई अफसोस नहीं करता है ,वह पैरोकारी करता है जाति आधारित धर्म का । इसके पक्ष में ईश्वर की इच्छा का सिद्धान्त बताता है ।
शूद्र ,पशु ,नारी की अभी भी वही व्याख्या करता है जो आदिम युग में भी कदाचित नहीं हुई होगी । आज भी दस्वी शताब्दी के हालत अपना रुख कर रहे हैं तो इसका कारण क्या है । सिक्ख धर्म इसके बिरोध में खड़ा होता है फलतः सिक्ख फूटी आँख नहीं सुहाता । मानुख की जाति सब एकै पछानिबों के सूत्र वाक्य को सनातम धर्म बकवास की संज्ञा देता है ।
आखिर यक्ष प्रश्न खड़ा होता है ,हिन्दू धर्म को मनुष्य को मनुष्य मानने पर समस्या क्या है ?
धर्म को जातियों मे क्यों विभक्त रखना चाहता है । कालांतर से इसका दंश यह राष्ट्र सहता आया है
अभिशप्त है सहने को । इसकी असहनशीलता का शिकार यह प्रायदीप अतीत काल से है । जयचंदों को पैदा किया , विधर्मियों को पाँव पसारने का अवसर दिया । झूठ ,अवैज्ञानिक ,अप्राकृतिक कुतर्क अंधविस्वास को आधार दिया । शुद्धता श्रेष्ठता उच्चता का काल्पनिक खोल ओढ़ जनमानस को अपने से दूर रखा है । कन्याकुमारी से कंधार की सीमा अब कहाँ तक संकुचित होगी नहीं मालूम ।पर इतना मालूम है की विलुप्त प्रजाति में उसी का नाम आता है जो अप्राकृतिक व तथ्यात्मक नहीं होता ,समय के अनुकूल नहीं होता, परिमार्जन का विकल्प खो देता है ।
ईश्वर के बाद के ईश्वर का का कोई वजूद नहीं होता ,जब हम मानव इश्वर बनने की अनुशंसा करते है ,प्रयास करते हैं, तो हम ईश्वर से नहीं अपने आप से छल करते हैं । अपने विकास को स्थगित करते हैं ।
जंतर मंतर की तमाम घटनाओं /दुर्घटनाओं मे हरियाणा की हिन्दू जमात का धर्म परिवर्तन एक सामान्य घटना नहीं एक खुला उदद्घोष है । आक्रोश है इस धर्म के झंडावरदारों के प्रति । जिम्मेदार कौन ? अपने गिरेवान में झांकना होगा ।
उदय वीर सिंह
गौर करें ! कैसा लगा होगा जब तथाकथित म्लेच्छों ने आर्यावर्त पर अपने पाँव रखे होंगे । दसवीं शताब्दी में दरवेशों ने अपने धर्म की व्यख्या इस तथाकथित देवभूमि पर आरंभ की होगी । राजा दाहिर की पराजय ने बेशुमार शर्तों को अंगीकार किया होगा । उपरांत पृथ्वीराज चौहान की महामंडित सेना के विदेशी आक्रांताओं के समक्ष घुटने टेक देने पर । सेवा में चल रहे अछूत से किसी सैनिक का कदाचित स्पर्श हो जाने के कारण ,सैनिक द्वारा शुद्धिकरण हेतु रणभूमि छोड़ ,अधिकृत व्यक्ति से पवित्र गंगाजल वर्षण हेतु वापस आना । आत्म सम्मान ,पुत्री अस्मिता राजधर्म के संरक्षार्थ आक्रांता से गलबहियाँ, हजारों जयचदों का दर्द ।
कैसा लगा होगा जब धर्माधिकारी द्वारा किले की बावडी के जल को लोभ या दबाव में अपवित्र घोषित किया गया होगा । पूलिंग जाति के नौनिहालों से लेकर बृद्धों तक की नृशंश हत्या की गयी होगी ।स्त्रीलिंग जाति के साथ अमानवीय व्यवहार ही नहीं क्रूरता की सीमाएं लांघी गयी होगी । पड़ोसी मूकदर्शक बने रहे । धर्म - वेत्ताओं का अलोप हो जाना या दासता की स्वीकारोक्ति । पद- प्रतिष्ठा के लिए के लिए राज-धर्म की नई परिभाषा का सृजन ,श्रमहीन नैराश्य परजीवियों का मृत्यु की सीमा तक लांघ जाने का आक्रोश ,राष्ट्र की निष्ठा से बहुत दूर आक्रांता -द्रोहीयों का स्वागत .......कैसा लगा होगा ।
कैस लगा होगा वो सौहार्द जब राजा भारमल ,बीरबल , टोडरमल ,राजा मानसिंह ,अभय सिंह सरीखे हजारों ने अपनी बेटियाँ की डोली को कंधा दे स्वेच्छा से विधर्मियों को समर्पित किया । पीछे जम्हूरियत ने अनुसरण किया ।
शायद यह कोई रणनीति रही होगी या धर्म का विशेष दर्शन । यह आज भी संज्ञान में होने के बाद भी अबूझ रहस्यमई बना हुआ है । कदाचित हम अपनी कायरता को विशिष्ट शैली की संज्ञा दे इतिश्री कर लेते हैं । जैसे किसी सुतुरमुर्ग का रेत में सिर छिपा लेना ।
अतिथि देव भवः की परंपरा में, अतिथि प्यारे लगे उनके आदर्श अच्छे लगे और वे जमीन पाते गए, फैलते गए । चाहे वे मुसलमान हों या ईसाई । उनके बल प्रयोग और बलात से भी इंकार नहीं किया जा सकता, हुआ भी । परंतु ऐसा माना जाता है ये कृत्य [परिवर्तन ] स्थायी नहीं होते । अफसोश वे पुनःअपने तथाकथित आदर्श धर्म की ओर रुख नहीं किया । नहीं लौटे । निश्चित रूप से वे आज हमारे शंसय का वे कारण हैं।
हमारी भाव प्रवरता में सर्वप्रथम जाति, द्वितीय धर्म, तृतीय स्थान में राष्ट्र रहा, जिसका प्रभाव आज भी उसी रूप में है । कथ्य और कर्म में जमीन आसमान का फर्क ।हमारे आदर्श ,सूत्र वाक्य बन कर रह गए ,यह अंतर विषद रूप लेता गया ।
पश्चिमोत्तर- उत्तर भारत में सिक्ख गुरुओं का अप्रतिम निष्ठा के साथ राष्ट्र प्रेमियों ने स्वागत किया । परोक्ष -अपरोक्ष रूप में अपना सर्वस्व न्योछावर किया । वहीं द्रोहियों ने विधर्मियों का खुल कर साथ और समर्थन दिया । ज़्यादातर वही आज हिन्दू धर्म के खास पैरोकार दिखाई देते हैं ।
धर्म का ठेकेदार जब घोषित करता है की हजार शूद्र एक गाय के बराबर होता है और वह अपने कत्थ पर कोई अफसोस नहीं करता है ,वह पैरोकारी करता है जाति आधारित धर्म का । इसके पक्ष में ईश्वर की इच्छा का सिद्धान्त बताता है ।
शूद्र ,पशु ,नारी की अभी भी वही व्याख्या करता है जो आदिम युग में भी कदाचित नहीं हुई होगी । आज भी दस्वी शताब्दी के हालत अपना रुख कर रहे हैं तो इसका कारण क्या है । सिक्ख धर्म इसके बिरोध में खड़ा होता है फलतः सिक्ख फूटी आँख नहीं सुहाता । मानुख की जाति सब एकै पछानिबों के सूत्र वाक्य को सनातम धर्म बकवास की संज्ञा देता है ।
आखिर यक्ष प्रश्न खड़ा होता है ,हिन्दू धर्म को मनुष्य को मनुष्य मानने पर समस्या क्या है ?
धर्म को जातियों मे क्यों विभक्त रखना चाहता है । कालांतर से इसका दंश यह राष्ट्र सहता आया है
अभिशप्त है सहने को । इसकी असहनशीलता का शिकार यह प्रायदीप अतीत काल से है । जयचंदों को पैदा किया , विधर्मियों को पाँव पसारने का अवसर दिया । झूठ ,अवैज्ञानिक ,अप्राकृतिक कुतर्क अंधविस्वास को आधार दिया । शुद्धता श्रेष्ठता उच्चता का काल्पनिक खोल ओढ़ जनमानस को अपने से दूर रखा है । कन्याकुमारी से कंधार की सीमा अब कहाँ तक संकुचित होगी नहीं मालूम ।पर इतना मालूम है की विलुप्त प्रजाति में उसी का नाम आता है जो अप्राकृतिक व तथ्यात्मक नहीं होता ,समय के अनुकूल नहीं होता, परिमार्जन का विकल्प खो देता है ।
ईश्वर के बाद के ईश्वर का का कोई वजूद नहीं होता ,जब हम मानव इश्वर बनने की अनुशंसा करते है ,प्रयास करते हैं, तो हम ईश्वर से नहीं अपने आप से छल करते हैं । अपने विकास को स्थगित करते हैं ।
जंतर मंतर की तमाम घटनाओं /दुर्घटनाओं मे हरियाणा की हिन्दू जमात का धर्म परिवर्तन एक सामान्य घटना नहीं एक खुला उदद्घोष है । आक्रोश है इस धर्म के झंडावरदारों के प्रति । जिम्मेदार कौन ? अपने गिरेवान में झांकना होगा ।
उदय वीर सिंह
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