मंगलवार, 13 अक्तूबर 2015

दर्द ,बनकर लावा पिघलना चाहता है -

तोड़ पर्वतों को सोता निकलना चाहता है
अब समय अपना चक्र बदलना चाहता है
मरुस्थल मेँ आग आखिर कब तक बरसेगी
छोड़ कर समंदर बादल बरसाना चाहता है -
परम्पराओं ने कहीं आग तो कहीं पानी लिखा
खोखले आदर्शों का जीवन बदलना चाहता है
कर्ण एकलव्य अहिल्या की दशा बदलनी चाहिए
धरती बदलना चाहती है गगन बदलना चाहता है -
जिंदगी के सवालों को नजरअंदाज न कर 
दर्द ,बनकर लावा अब पिघलना चाहता है -
अँधेरों की सलाखों मेँ कब तक रहेगा कैद 
खोल प्राची द्वार अंशुमान निकलना चाहता है -

उदय वीर सिंह

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