वो मजदूर थे
मुल्क सँवारते रह गए
वो रणवीर थे
सरहद संभालते रह गए -
वो अन्नदाता धीर थे
हल चलाते रह गए -
जन भूख थी पहाड़ जैसी
अन्न उगाते रह गए -
वो सरफरोश थे
सर कटाते रह गए
जब भी आई आंच वतन पर
जीवन लुटाते रह गए -
कुछ बतफ़रोश थे
की सिर्फ
शेख़ी बघारते रह गए -
नंगे रहे वतनपरस्त
गद्दार कलफ लगाते रह गए -
उदय वीर सिंह
3 टिप्पणियां:
आपकी इस प्रविष्टि् की चर्चा कल शनिवार (20-0122016) को "अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का माहौल बहाल करें " (चर्चा अंक-2258) पर भी होगी।
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सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
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हार्दिक शुभकामनाओं के साथ
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
सटीक रचना
उम्दा :)
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