बनती गई
है कविता दरबारी
अभिव्यक्ति
बंधक मिलती है
निजता भी कितनी सरकारी है
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हम किस दौर के समंदर हैं उदय
दरिया गंदी है बादल तेजाबी है
हवाओं में है रसायन घुला हुआ
समाज में बगदादी है कहीं नाजी है -
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जुमलों के दौर में यथार्थ सिसकता है
जीवन के मसले अभिशप्त दग्ध
बेबस हम आज प्रतीक्षित
वहीं खड़े हैं
आँचल में आई तो कोरी बयानबाजी है-
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उदय वीर सिंह
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