जब समय अंत का आता है,
याद बहुत कुछ आता है ,
चाहत समेटने की कुछ बहुत बहुत ,
पर पवन वेग उड़ा ले जाता है -
क्या खोया क्या पाया ,
निर्जन पीछे सूनापन आगे
स्वप्न धुल धूसरित हो जाता है -
स्वप्निल गट्ठर लाद पीठ
हो आत्ममुग्ध कर कागज के फूल
मकरंद कहीं खो जाता है -
स्वजन पूछते कहाँ रहे
वांछित कौन अधूरी अभिलाषा ?
नेह सनेह सम्बन्ध विखंडित
मृग मरीचिका में दह जाता है -
कन्धों का बोझ ढोना होता है,
देना प्रतिकार अनादर है ,
दोनों तट दो आँचल विस्मृत
बाँहों का सेतु ढह जाता है -
औषधि बनकर रहना था
मन अवसाद पूरित रह जाता है -
उदय वीर सिंह
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