याचन में गंतव्य लिए सडकों पर उतर आई है
-
आये थे सुरक्षित करनेको दुर्दिन सेजीवन अपना,
दुर्दिन को बांधे पेट-पीठ,ले लौट चले टुटा सपना-
मालिक व मजदूर अबल क्यों ढेले पत्ते सा साथी हैं ?
शंसय व दुर्भाग्य नियति, क्या जीवन के
अपराधी हैं ?
छाँव ढूढ़ते बादल के ,हो विकल बरसते तापन में
कंदुक से मारे-मारे फिरते सबल राष्ट्र के आँगन में -
अनिश्चित जीवन प्रश्न-चिन्ह प्राचीर मनस में पाई है
इस
पार करोना बैठा है
,उस पार पर्वत और खाईं है -
उदय
वीर सिंह
2 टिप्पणियां:
आदरणीया/आदरणीय आपके द्वारा 'सृजित' रचना ''लोकतंत्र'' संवाद मंच पर( 'लोकतंत्र संवाद' मंच साहित्यिक पुस्तक-पुरस्कार योजना भाग-२ हेतु नामित की गयी है। )
'बुधवार' ०१ अप्रैल २०२० को साप्ताहिक 'बुधवारीय' अंक में लिंक की गई है। आमंत्रण में आपको 'लोकतंत्र' संवाद मंच की ओर से शुभकामनाएं और टिप्पणी दोनों समाहित हैं। अतः आप सादर आमंत्रित हैं। धन्यवाद "एकलव्य"
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टीपें : अब "लोकतंत्र" संवाद मंच प्रत्येक 'बुधवार, सप्ताहभर की श्रेष्ठ रचनाओं के साथ आप सभी के समक्ष उपस्थित होगा। रचनाओं के लिंक्स सप्ताहभर मुख्य पृष्ठ पर वाचन हेतु उपलब्ध रहेंगे।
आवश्यक सूचना : रचनाएं लिंक करने का उद्देश्य रचनाकार की मौलिकता का हनन करना कदापि नहीं हैं बल्कि उसके ब्लॉग तक साहित्य प्रेमियों को निर्बाध पहुँचाना है ताकि उक्त लेखक और उसकी रचनाधर्मिता से पाठक स्वयं परिचित हो सके, यही हमारा प्रयास है। यह कोई व्यवसायिक कार्य नहीं है बल्कि साहित्य के प्रति हमारा समर्पण है। सादर 'एकलव्य'
छाँव ढूढ़ते बादल के ,हो विकल बरसते तापन में
कंदुक से मारे-मारे फिरते सबल राष्ट्र के आँगन में -आज समाज का कटु सत्य एवं उन लाखों बेघर असहायों की पीड़ा बयां करती लाजवाब कृति
वाह!!!
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