रविवार, 20 जून 2021

सज़ा जमाने भर की...



गुनाह था रोने का सजा जमाने भर की।

रोटी ख़्वाब में पाया था वो खाने भर की।

कहा हसरतों कोअपना समझकर दौर से,

मयस्सर न हुई जमीं सिर छुपाने भर की।

हकपसंदों की सतर में वो जैसे खड़ा हुआ,

कट गई गर्दन वीर, देर थी उठाने भर की।

वो दौरे यतिमी में रहा दूर दरबार से रहकर,

खुली नसीब देरथी कीमत चुकाने भर की।

बिखर गई कई टुकड़ों में हद समेटी हुई,

सिर्फ़ देर थी दर से मैयत उठाने भर की।

उदय वीर सिंह ।

1 टिप्पणी:

रेणु ने कहा…

हकपसंदों की सतर में वो जैसे खड़ा हुआ,
कट गई गर्दन वीर, देर थी उठाने भर की।//
बहुत बढिया वीर जी | बहुत अच्छी ग़ज़ल है आपकी | सादर शुभकामनाएं|