सोमवार, 30 अगस्त 2021

" देश की मिट्टी "

   






जहाँ तक मुझे आद आता है मैं पांचवीं कक्षा का छात्र था,सन 1971 की जंग को करीब चार साल बीते हो गए थे । पाकिस्तान के द्वारा थोपी दो जंग भारत देख चूका था जंग में भारत ने पाकिस्तान को करारी शिकश्त ही नहीं दी बलिक पाकिस्तानी सेना को बड़ी लज्जित अवस्था में भारतीय सेना के समक्ष, आत्म- समर्पण करने को मजबूर कर दिया था । भारत की मुक्तिवाहिनी सेना ने पूर्वी पाकिस्तान [वर्तमान बंगलादेश] को आजाद करा कर एक नए स्वतंत्र देश बांग्लादेश का निर्माण करा उनको पशिमी पाकिस्तान [ वर्तमान पाकिस्तान ] की दासता से मुक्त करा दिया ,जो भारत की कूटनीतिक राजनीतिक व सामरिक नीतिओं का स्वर्णिम अध्याय साबित हुआ।

भारतीय जनमानस में पाकिस्तान की पाशविक अमानविय क्रूरता व विस्वासघात के प्रति घोर आक्रोश व्याप्त था। तत्कालीन साहित्य अखबार व लोकगीत पाकिस्तानी आचरण के विरुद्ध भरे पड़े हैं। स्वाभाविक भी था ।
मेरे विद्यालय में वार्षिक खेल कूद व उसके इतर कार्यक्रम बड़े उतसाह से प्रतिवर्ष संपन्न होते थे जो अन्तर्विद्यालयी प्रतियोगिता में श्रेष्ठता के आधार पर प्रतिभागी हो पुरस्कृत होते। इस निमित्त इस वर्ष भी दो माह पूर्व अगस्त माह से ही छात्रों को उनकी अभिरुचि के अनुसार चयन कर प्रतिभागी कार्यक्रमों हेतु योग्य प्रशिक्षकों के निर्देशन में अभ्यास आरम्भ हो गया था।
मेरी अभिरुचि खेलों के साथ काव्य व संगीत में भी थी सो इस हेतु मेरा चयन आरम्भ में ही हो गया। इस दिशा में प्रशिक्षकों के निर्देशन में अपनी जिम्मेदारियों को बड़ी तन्मयता से निर्वहन करने का प्रयास कर रहा था । असफलता स्वयं को ही नहीं विद्यालय की प्रतिष्ठा को भी रेखांकित करती। शिक्षकों,प्रशिक्षकों का मेरे ऊपर विस्वास था,शायद इसी कारण खेल,ममोमा,स्पोर्ट,वाद-विवाद, प्रतियोगिता के साथ संगीत में भी मेरी सक्रिय भागीदारी थी। जिसका मैं बखूबी अभ्यास के दौरान प्रशंसनीय प्रदर्शन भी कर रहा था। कार्यक्रम समन्वयक, शिक्षकों का स्नेह मिल रहा था। इस
सांस्कृतिक कार्यक्रम में एक नाटक जिसका शीर्षक " देश की मिटटी " का भी मंचन होना था,पात्रों के चयनोपरांत मंचित होनेवाले नाटक का विद्यालय के संगीत हाल में अभ्यास चल रहा था।
मैं अपने अभ्यास के उपरांत अन्य कार्यक्रम के अन्य प्रतिभागियों के अभ्यास प्रदर्शन को देख आनंदित होता।
संगीत कक्ष में मंच पर नाटक का अभ्यास चल रहा था, मैं इसे देख रोमांचित होता सोचता -
काश मैं भी इस नाटक का हिस्सा होता। मेरा विस्वास था कि मैं इसे कर सकता हूँ। समस्या थी चयन की,और मैं कई अन्य कार्यक्रम में प्रतिभागी भी था। फिर भी आत्मविश्वास था मुझको। मंचित हो रहे नाटक में मेरा एक सहपाठी कश्मीरी मुसलमान परिवार के बुजुर्ग मुखिया रसूल खानके किरदार में था। जिसका वह बखूबी निर्वहन नहीं कर पा रहा था,कभी वाद-संवाद की कमी कहीं भाव भंगिमा की,कभी भाषा की समस्या उसके सामने आ जाती। शिक्षक,प्रशिक्षक चिंतित थे। नाटक का वह सबसे मजबूत किरदार था, जिसे मजबूती से निभाना आवश्यक था।
मैं पीछे बेंच से उठा और बिना किसी परिणाम को सोचे बोल पड़ा -
सर ! मैं इसे कर सकता हूँ । करके दिखाऊँ ?
प्रशिक्षक एक पल ठहरे फिर ऊपर आने का ईशारा किया।
मैंने उनके कहेनुसार संवाद व भाव भंगिमा सहित किरदार को जीया। तालियां बजे लगी थीं। शायद मैं रसूल खान के किरदार के लिए उपयुक्त था। प्रशिक्षक ने कहा -
इस किरदार को अब तुम निभाओगे। मैंने सहमति में अपना सिर हिलाया।
मुझे आत्मिक खुशी मिली जिसे मैं चाहता था ।
   प्रधानाचार्य जी का आशीष भरा हाथ मेरे सिर पर था। बोले-
   उदय ! तुम्हारे ऊपर बड़ी जिमेदारी है। कई कार्यक्रमों का दायित्व है तुम्हारे ऊपर । विस्वास कायम रखना । मुझे भरोषा है विस्वास खंडित नहीं होगा। विद्यालय की प्रतिष्ठा में कमीं नहीं आएगी। मेरा विद्यालय सदा की भांति इस वर्ष भी अग्रणी रहेगा।
मैं मौन नतमस्तक था ।
देश की मिट्टी में कश्मीरी मुसलमान परिवार के बुजुर्ग मुखिया रसूल खान का एक महत्वपूर्ण किरदार है । पाकिस्तानी ख़ुफ़िया एजेंसियां व उनके द्वारा पोषित अलगाववादी स्थानीय कश्मीरी मुसलमानों को धार्मिक सामाजिक आर्थिक प्रलोभन ही नहीं आतंकित भी करके भारतीय गणतंत्र के विरुद्ध साज़िश में शामिल होने को मजबूर कर रहे थे। उनसे बल पूर्वक शरण व सहयोग की मांग करते थे। इनकार में इज्जत आबरू जान माल से खेलते। स्थानीय युवकों को वगावत के लिए हर तरह के हथकंडे अपना कर जिहाद व इस्लाम के नाम पर उकसाते अपने जाल में फ़ांसते और शोषण करते।
रसूल खान का इकलौता बेटा बिस्मिलाह खान आतंकवादियों की साज़िश का शिकार हो गया। भारत के विरुद्ध पाकिस्तानी एजेंसियों आतंकियों के साथ मिल गया। लालच व दबाव में अपने घर उनको पनाह देने व उनकी मदद के लिए पिता रसूल खान पर दबाव बनाने लगा। पिता रसूल खान ने बेटे को फटकार लगाई,एक वतनपरस्त पिता ने दो टूक जवाब दिया।
" मुझे अपने वतन से बे-पनाह मोहब्बत है। इस देश की मिट्टी से प्यार है "
" क्या समझते हो मैं इस बुढापे में अपनी सफेद दाढ़ी में स्याही लगवा लूंगा ?"
हरगिज़ नहीं।
वहीं छिपे एक आतंकी की गोली का पिता रसूल खान निशाना बन शहादत को प्राप्त करते हैं । बेटा विस्मिल्लाह खान मृत पिता को देख आतंकियों का प्रतिरोध करता है, वह भी आतंकियों की गोली का शिकार हो जाता है।
रसूल खान ने जीते जी अपनी सफेद दाढ़ी में स्याही नहीं लगने दिया।
इस नाट्य मंचन ने विद्यालय को सम्मान दिलाया, मुझे भी विद्यालय ने सम्मानित किया। विद्यालयी दिनों को सोच कर मन आज भी रोमांचित हो उठता है।
उदय वीर सिंह।
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3 टिप्‍पणियां:

yashoda Agrawal ने कहा…

आपकी लिखी रचना ब्लॉग "पांच लिंकों का आनन्द" मंगलवार 31 अगस्त 2021 को साझा की गयी है.............. पाँच लिंकों का आनन्द पर आप भी आइएगा....धन्यवाद!

विभा रानी श्रीवास्तव ने कहा…

जय हिन्द
गर्व की बात

How do we know ने कहा…

बहुत अच्छा लगा इसे पढ़ कर।