होकर अपनी साज़िश में कामयाब
मुस्कराता बहुत है।
लगे जिसपर अनेकों दाग उंगलियां
उठाता बहुत है।
परहेज है जिसे सच बोलने से वो
कसमें खाता बहुत है।
चाहता है सुनना सबकी बातें मगर
अपनी छुपाता बहुत है।
जलता है गैरों की बुलंदियों से
इंतकाम में जलाता बहुत है।
पसंद नहीं जो जमाने को राग
उनको गाता बहुत है।
मालुम है सबको जो मुमकिन नहीं
वो ख़्वाब दिखाता बहुत है।
वजूद ही नहीं माज़ी में जिस दास्ताँ का,
उन्हें सुनाता बहुत है।
उदय वीर सिंह।
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