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गर मजबूर की गलियों से भी वास्ता रखते।
सर हो जाती मंजिल प्रीत का रास्ता रखते।जख्मों को नमक नहीं जरूरत मरहम की है,
जयचंद न होता गर भाई सङ्ग उदारता रखते।
टूट जाती है ख़ामोशी पर्वतों की भी एकदिन,
होकर नर्म दिल पत्थरों से कभी वार्ता करते।
दिल उनके पास भी है हो कोई सुनने वाला
यकीनन बेज़ुबान भी अपनी दासतां रखते।
उदय वीर सिंह।
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