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आग कोई भी हो शीतल जल नहीं होती।
जलाती है तन-मन कभी निष्फल नहीं होती।
पाखंड और झूठ की आग के क्या कहने,
पाक उतनी जैसी गंगा भी निर्मल नहीं होती।
उन्माद और अहंकार की आग ही निराली है,
स्व - विध्वंश के बाद भी निर्बल नहीं होती।
आग ईर्ष्या व डाह की खामोशी बेमिशाल,
जली जमीन फिर कभी उर्वर नहीं होती।
क्रोध अधर्म क्रूरता की आग का सानी नहीं,
जली मनुष्यता तो कभी उज्वल नहीं होती।
उदय वीर सिंह।
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