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कल आंगन था आज बाजार हो गया।
गोपनीय दस्तावेज था अखबार हो गया।
लगने लगी हैं बोलियां नींव के ईंटों की,
कल साहूकार था आज कर्ज़दार हो गया।
धरती भी वही आसमान भी वही तालिब
कल फलदार था शज़र कांटेदार हो गया।
टूट जाएंगी वर्जनाएं कुछ इस तरह बेदम,
कल कंगन था आज कटार हो गया।
उदय वीर सिंह।
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