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भूखा-प्यासा ही रह गया इंतजाम तो बहुत थे।
मिलीन पनाह धूप-बारिश में मकान तो बहुत थे।
रिहा हुआ आखिर बेगुनाह अपनी मौत के बाद,
जींद बीती शलाखों के पीछे विद्वान तो बहुत थे।
रोता रहा इंसान रोटी कपड़ा मकान के जानिब
मंदिरों में हिन्दू मसीतों में मुसलमान तो बहुत थे
गुलामी,भूख का इतिहास अतिश्योक्ति तो नहीं
चौकमें गबरू जवान खेतोंमें किसान तो बहुतथे।
गुमनामियों की ही चादर में मायूस लौट आया
अजीजों की महफ़िल में मेजबान तो बहुत थे
उदय वीर सिंह।
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