ये टूटा हुआ घरौंदा बनाने को रह गया है।
ये उजड़ा हुआ चमन बसाने को रह गया है।
तूफ़ानी लश्करों से हवाओं ने जोड़ा रिश्ता
ले जायें कहीं उड़ाकर छिपाने को रह गया है।
तक्षशिला नालंदा की बुलंदी कभी रही,
अदीबों की महफ़िलों में सुनाने को रह गया है।
भटकने लगे हैं लोग अंधेरों की जद शहर,
चौराहे का रोशनीघर दिखाने को रह गया है।
बरसने लगी है कालिमा अंबर से इस कदर,
किसी साये मेंअपना दामन बचानेको रह गया है
यह जानकर भी अपना हर कोई सगा नहीं,
रिश्तों के इस सफ़र में निभाने को रह गया है।
उदय वीर सिंह।
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