.....✍️
मसर्रत का पता हम पूछते रह गए।
इतना घना जंगल रास्ता ढूंढते रह गए।
काफ़िले निकल गए उड़ाते हुए गुब्बार,
किसको पड़ी पीछे रास्ते टूटते रह गए।
पूंजी किसी की सामान किसी और का,
बाजार को समझदार लूटते रह गए।
आग और घर किसी के लगाई किसी ने,
बस्ती के लोग आपस में जूझते रह गए।
उदय वीर सिंह।
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें