रविवार, 29 जनवरी 2023

फ़िजाएँ बेईमान लगती हैं...







 🙏🏼नमस्कार मित्रों !

मुकद्दस  हवाएं  भी परेशान लगती हैं।

पातों की खड़खड़ाहट तूफान लगती हैं।

आग से शोर तो लाजमी है  बस्तियों में,

महलों की कैफ़ियत शमशान लगती हैं।

गिर रहे पत्ते पेड़ों  से कितने जर्द होकर,

ये फ़िजाएँ बसंत की  बेईमान  लगती हैं।

उड़ रहे परिंदे दरख़्तों से,पा कोई आहट,

आरियों की आमद शाखें नीलाम लगती हैं।

कागज़ी फूलो गुलशन का जमाल कायम,

गंध-पसंद तितलियां  मेहरबान लगती हैं।

उदय वीर सिंह ।

5 टिप्‍पणियां:

जिज्ञासा सिंह ने कहा…

पतझड़ के बाद तो बहार आनी ही है, मन के एहसासों की अभिव्यक्ति।

Usha Kiran ने कहा…

बहुत खूब !

Rupa Singh ने कहा…

पतझड़ के बाद बसंत प्रकृति का नियम है।
सुंदर प्रस्तुति।

Sudha Devrani ने कहा…

उड़ रहे परिंदे दरख़्तों से,पा कोई आहट,

आरियों की आमद शाखें नीलाम लगती हैं।
बहुत सुंदर सार्थक...
सारगर्भित सृजन।

देवेन्द्र पाण्डेय ने कहा…

वाह!