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कितनी सगी थी अपनी थी पराई न थी।
संवेदनशील थी जिंदगी तमाशाई न थी।
पड़ोसी चूल्हा जला कि नहीं ,जांच लेती,
जमीन पर थी आकाश की ऊंचाई न थी।
साग तेरा, मक्के की रोटी मेरी बांट लेते,
दाल-रोटी तो थी बज्र सी महंगाई न थी।
माफ कर, माफ़ी मांग लेते खताओं की,
रिश्तों में दर्द था रकीबपन रूखाई न थी।
हंस कर भूल जाते कहे का मलाल न था
वीर मोहब्बत से बढ़ कर कोई दवाई न थी।
उदय वीर सिंह।
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