🌹अमर सपूत सरदार करतार सिंह सराभा जी🌷
उनकी जयंती पर कोटिशः प्रणाम🙏
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" यहीं पाओगे महशर में जबां मेरी बयाँ मेरा,
मैं बन्दा हिन्द वालों का हूँ है हिन्दोस्तां मेरा।"
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फांसी ही तो चढ़ा देंगें ! इससे ज्यादा और क्या ?" हम नहीं डरते।
-करतार सिंह सराभा।
19 वर्षीय सरदार करतारसिंह सराभा जी को 16 नवम्बर 1915 के दिन ब्रिटिश हुकूमत ने फांसी पर चढ़ा ,दिया था।
अदालत में जब जज ने करतारसिंह को आगाह किया कि वह सेाच समझकर बयान दें वरना परिणाम बहुत भयावह हो सकता है, तब इस दिलेर नौजवान ने अटल निर्भय आत्मविस्वास भरे लहजे में माननीय जज को अदालत में उपरोक्त जवाब दिया था।
आखिरी समय में जेल में मुलाकात के लिए आए दादा ने जब उससे कुछ सवाल किये तो उसने लंबी उम्र पाकर मरने वाले अपने कई परिचितों का हवाला देते हुए यह प्रतिप्रश्न किया था कि लम्बी उम्र हासिल करके उन्होंने कौन सी उपलब्धि हासिल कर ली? मात्र साढे़ अठारह वर्ष का यह युवक उस समय वास्तव में अपनी कुर्बानी से राष्ट्रनायक बन गया था।
8 वर्षीय बालक भगतसिंह पर इस घटना का बहुत गहरा प्रभाव पड़ा था ।इसे उन्होंने बाद मेँ अपनी प्रौढ़ इंक्लावी यात्रा में हिंदी की एक पत्रिका ‘चांद ‘ के फांसी अंक में करतारसिंह सराभा पर अपने बगावती उद्दगार बड़ी तफ़सील से व्यक्त किये थे।
भगतसिंह सरदार करतार सिंह सराभा की तस्वीर अपने सीने से लगाये रहते थे। भगत सिंह कहा करते थे कि सराभा जी मेरे गुरू,भाई व सखा सभी हैं।
"यहीं पाओगे महशर में जबां मेरी बयाँ मेरा,
मैं बन्दा हिन्द वालों का हूँ है हिन्दोस्तां मेरा।
मैं हिन्दी ठेठ हिन्दी जात हिन्दी नाम हिन्दी है,
यही मजहब यही फिरका यही है खानदां मेरा।
मैं इस उजड़े हुए भारत का यक मामूली जर्रा हूँ,
यही बस इक पता मेरा यही नामोनिशाँ मेरा।
मैं उठते-बैठते तेरे कदम लूँ चूम ऐ भारत ,
कहाँ किस्मत मेरी ऐसी नसीबा ये कहाँ मेरा।
तेरी खिदमत में ऐ भारत ! ये सर जाये ये जाँ जाये,
तो समझूँगा कि मरना है हयाते-जादवां मेरा।
करतार सिंह सराभा की लिखी उक्त गज़ल को भगत सिंह अपने पास रखते थे और अकेले में गुन गुनाया करते थे।
उदय वीर सिंह।