गद्दार को गद्दार कहो क्या फर्क पड़ता है,
गद्दार को वफादार कहो तो फर्क पड़ता है।
इश्तिहारों में जगह पा जाए झूठ लाजिमी है
संस्कारों को समाचार कहो फर्क पड़ता है।
हजारों दर्द मिले एक और मिला क्या फ़र्क,
संवेदना को कदाचार कहो फर्क पड़ता है।
वारों की कमीं नहीं वो आएंगे जाएंगे ही
मंगलवार को इतवार कहो फर्क पड़ता है।
महल का मायिना सिर्फ दीवार ही नहीं
दीवारों को रोशनदान कहो फर्क पड़ता है।
उदय वीर सिंह।
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